Image Source: The Boston Calendar |
[ घर - 1 ]
हम चार मित्र थे
पटना में साथ रहते थे
हम घर जाते थे
लौटते समय
साथ लाते थे
खाने की कुछ चीजें
हम खाते
और
कल्पना करते थे
एक - दूसरे के घर की
घर से दूर
हम प्रवेश करते थे कई घरों में |
[ घर - 2 ]
कई लोग
चींटियों की तरह
प्रयत्नशील होते हैं
यत्न करते हैं
मधुमक्खियों की तरह
चमकते हैं
जुगनूओं की तरह
रेल बदलते हैं
बस पर सवार होते हैं
चलते हैं कुछ दूर पैदल
गिलहरीयों की तरह दौड़ते हैं
घर पहुँचने के लिए |
[ प्रकाश वर्ष की दूरी तय कर आया हूँ ]
कितने प्रकाश वर्ष की दूरी
तय कर आया हूँ
अनगिनत तारों से मिला
पर बित्ते भर की छाँव नहीं थी कहीं
बैठ नहीं सका
आधे रास्ते एक चिड़िया
आकर बैठी काँधे पर
गाने लगी पेड़ों के गीत
मैंने याद किया अपने घर को
उस पेड़ को याद किया
घर छोड़ कर जाने के बाद
माँ को दिलासा देने के लिए
जो वहीं खड़ा रहा |
Painting by by: Shveta Melpakkam |
[ इसी नक्षत्र पर एक दिन ]
रोटी बेलता हुआ एक आदमी
भूख को एक आकार देता है
कविता में एक आदमी उन हाथों की
सुरक्षा की कामना करता है
एक बच्चा गीले आटे की लोई से
बनाता है खिलौने
वह रोटी का नहीं खिलौनों के
सूखने का इंतज़ार करता है
इसी नक्षत्र पर
एक ही जगह एक दिन |
[ अकाल मृत्यु को रोते हुए ]
मैंने जान बूझ कर नहीं कहा
बस मुँह से निकल आया -
सूख जाये तो सूख जाये पेड़ - पौधे
खेती सूख जाये
पर
मनुष्य के शरीर का पानी न सूखे
अकाल मृत्यु को रोते हुए आदमी से
ऐसी गलती हो जाती है |
[ आग ]
यह आग ही है
जो हमें धकेलती है शहरों की ओर
यह आग ही है
घर लौटते हुए
हम महसूस कर रहे हैं अपने पैरों में
यह आग ही है
जो हमारे घरों को जलाती है
यह आग
हमारे आस-पास होकर भी
बाज़ार की भाषा बोलती है |
[ पृथ्वी - 1 ]
यह पृथ्वी ही है
जिस पर चलती थी एक लड़की - फूल जैसी
कितनी खाली - खाली लगती है पृथ्वी
पृथ्वी के किसी कोने से लौट रही थी अपने घर
लौट नहीं सकी
उस फूल जैसी लड़की की नहीं
पृथ्वी की सांस उखड़ गई |
[ पृथ्वी - 2 ]
पृथ्वी
एक आँगन है
जिसमें
बैठी है एक औरत
दुःख के असंख्य कंकड़ चुन रही है
पृथ्वी को बचाने के लिए |
[ पृथ्वी को सबसे अधिक जानती है रेलगाड़ी ]
पृथ्वी की असीम पीड़ा में
पेड़ निरपेक्ष खड़े हैं
चिड़िया नहीं जानती है
मनुष्यों की भाषा में दुःख के गीत
पृथ्वी को सबसे अधिक जानती है रेलगाड़ी
रेलगाड़ी में बैठकर कोई दुःख से पार पाता है
कई पुलों से गुज़र कर सुख के छोर को छू कर
दुःस्वप्न की तरह
पृथ्वी की पीठ पर खड़ी है रेलगाड़ी
चलती-फिरती रेलगाड़ी के किस्से
जीवन का शुक्ल पक्ष है |
[ गिनती ]
किसी भी चीज को ऊँगलियों पर गिनता हूँ
उदासी के दिनों को
ख़ुशी के दिनों को
ट्रेन के डिब्बों को
पहाड़ को
नदी को
थाली में रोटी को
तुम्हारे घर लौटने के दिनों को
जब ऊँगलियों के घेरे से बाहर निकल जाती है गणना
तो अनगिनत चीज़ें गिनती से बाहर रह जाती है
इस गणतंत्र में |
[ मेरी जेब खाली थी शेष नहीं था कुछ कहना ]
मेरे पास कुछ नहीं था
एक गुलमोहर का पेड़ था सरकारी जमीन पर
पास की पटरी से गुजरती हुई ट्रेन की आवाज थी
रिक्शा वालों की बढ़ती भीड़ थी
चिड़ियाँ नहीं थी उनकी परछाईयाँ दिखती थी
गिटार बजाता एक लड़का था जो खाँसता बहुत था
हम पानी में नहीं कर्ज में डूबे थे
हम कविताएँ नहीं गाली बकते थे
हमें याद है हमारे कपड़े में कुल मिलाकर पांच जेबें थीं
एक में कमरे की चाभी
दूसरे में घर की चिट्ठी
तीसरी - चौथी और पाँचवीं खाली |
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विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं बया, हंस, वागर्थ, पूर्वग्रह ,दोआबा , तद्भव, कथादेश, आजकल, मधुमती आदि में कविताएँ प्रकाशित
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कविताओं का मराठी और पंजाबी भाषा में अनुवाद प्रकाशित ।
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C/O – श्री अरुण कुमार
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