नितेश जी की कलम सिद्धहस्त है ऐसे बिम्बों को गढ़ने में, जिनसे होकर गुजरने में अनकहे से गुजरने सा महसूस होता है. विषय ऐसे चुनते हैं वे, जो रोजमर्रा के होते हुए भी जिनका वितान खासा व्यापक होता जाता है. उनकी कुछ कविताएँ नवोत्पल पर:
1.शब्दों के पर
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Source: Pinterest |
शब्दों के पर किसने काटे
अर्थों को घर किसने बांटे
अब भी है कुछ शब्द गगन में
सूने घर में ज्यूं सन्नाटे।।
कुछ शब्दों ने मानी छोड़े
कुछ ने अर्थ नये हैं जोड़े
कुछ शब्दों की सीमाओं पर
अटकाती भाषाऐं रोड़े।।
कुछ शब्दों पर छियी उदासी
कुछ शब्दों के अर्थ है बासी
सदियों की दीमक से लिपटे
शब्द हैं कुछ पोथीगृहवासी।
शब्द हैं ख़ुद ही ख़ुद को खाते
शब्द शब्द के अर्थ को पीते
किसका आश्रय लेकर जीते
यहां तो सबके दिल हैं रीते।।
शब्द भी विस्थापन से त्रस्त हैं
उनकी आत्मा रोग ग्रस्त है
बाहर से तो सुन्दर दिखते
भीतर से पर अस्त-व्यस्त हैं।
कैसा गोरख धंधा है
यहां देखता अंधा है
आवाज़े सब ज़िन्दा है
शब्द मगर शर्मिन्दा है।।
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2-परछाइयां
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Source: Saatchi Art |
परछाइयां छा जाती है
सूरज की पहली किरण के साथ
वे रहती हैं रात के अंधेरों में भी
एक दीये की ओट में
दिन भर दौड़ता हूं
उन परछाइयों के पीछे
तो नहीं *है*
न *होंगी* कभी
नापता हूं उनसे
अपनें कद को
हर पल
परछाइयां ही तो है......मृत्यु
मैं भागता हूं रोज़
जिसके पीछे
अन्थकार ही आश्रय मेरा
जहां नहीं होती मेरी भी परछाई
वही सत्य है
वहां
पर...........छूट जाता है-तो
कहां ठहरेगी छाया
वहीं से फूटता है प्रकाश
शुद्धतम प्रकाश।।
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3-कलमुंहे
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उजाले के लिए
हड़ताल पर बैठी भीड़ में से
कुछ लोग
चुपके से भेज रहे पर्चियां
कि अभी अंधेरा रहे घनघोर
कुछ रोज़ ओर
शोर होगा
हम दबा देंगे
लीप देंगे
अंधकार की कालिख से
उजाले की आस
क्या तुम्हें पता नहीं?
विश्वास करो
हम सदा यही करते आए हैं।
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4.हल-चल
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मैनें देखा
उन्होंने भेज दिया
बहला-फुसला कर
किसानों को
युद्ध-भूमि में
हल ही थे जिनके हथियार
उन्होंने जोत दी युद्ध-भूमि
अलस्सुबह
और वह हो गयी
हरी-भरी,
देखा मैने
उन्होंने भेजा
धोखे से
सैनिकों को खेत में
जिनके हाथों में थी बन्दूकें
वे कुछ ना कर सके
गाड़ दी थी बन्दूकें उसी खेत में
जहां आज
फूट पड़े हैं
फूल पीताभ।।
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5-कच्चा अंधेरा
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उजाले
देते हैं मुझे
उपहार
अंधेरे का
जिसे मैं
इकट्ठा करता हूं रोज़
घर के इक कोने में
कि जब
लेनी हो मुझे नींद
भरी दुपहरी में
बना सकूं रात
हाथो-हाथ।।
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6.नश्वर-गन्ध
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नहा कर निकलता हूं
स्नानघर से
मैं वह नहीं रहता
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जो गया था नहाने
रोज़ परत-दर-परत उतरता है मुझे
पानी
छोटी सी नाली में बहकर
मैला-कुचला निकलता हूं
उन रास्तों पर
जो है संकरे-बदबूदार
पर मेरे ही बनाए हुए
सारी परतें खोल देगा
जिस दिन पानी
बहा देगा मुझे
उन गन्दे नालों में
उस दिन
स्नानघर से आएगी
*न होने* की महक।।
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