फोटोग्राफी में गोल्ड मेडलिस्ट रही अर्चना मिश्रा जी ने गोरखपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में परास्नातक की डिग्री हासिल
की है । पेशे से अध्यापिका रहीं हैं और इत्तेफाक़ से
उस स्कूल में भी पढ़ाया है जहां उनके मामाजी, मौसीजी आदि भी अपने बचपने मे पढ़ा करते थे । लेखन
और पढ़ने में आप की सदैव ही रुचि रही है पर पिछले दस – पंद्रह सालों में पारिवारिक जिम्मेदारियाँ
इतनी थीं कि पढ़ना जारी रहा पर लिखने पर लगाम सी लग गयी थी। सालों बाद अर्चना जी पूर्वी
उत्तर प्रदेश के अपने गाँव का एक क़िस्सा आज नवोत्पल परिवार को सुना रही हैं। (टीम नवोत्पल )
अर्चना मिश्रा |
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वर्तमान समय में कामवाली का नाम सुनते ही जो तस्वीर हमारे मन-मस्तिष्क में उभर
कर आती है,
वह एक नखरेवाली
स्त्री के रूप में ही आती है। क्योंकि आजकल हम अच्छे से अच्छी वस्तु, बड़े से बड़ी कीमत देकर खरीद सकते हैं और हम
आश्वस्त भी
रहते हैं कि वह
वस्तु,
हमारी कसौटी पर
खरी उतरेगी। लेकिन कामवाली के मामले में तो, यह भी असंभव सा लगता है। परंतु सभी लोग एक जैसे नहीं होते हैं ,विशेषकर गाँव में आप को अब भी बहुत अच्छे लोग मिल जाते हैं । भले ही वो हमारे यहाँ काम करते हों पर हम उन्हें कभी कामवाली ( या दाई,आया,महरिन,धाय,माँ आदि) कहते भी नहीं बल्कि चाची , बुआ , मामी काकी आदि किसी न किसी रिश्ते से ही पुकारते है । ऐसे ही थीं हमारे गाँव
की नोखा ईआ।
लगभग पच्चीस वर्ष बीतने के बाद
भी,
उस सरल स्वभाव
वाली,
साधारण सी दिखाई
देने वाली,
गरीब (धन से, मन से नहीं), अनपढ़,
बुजुर्ग महिला
की याद बार-बार आती है.... वह हमारे घर की सदस्या नहीं थीं बल्कि गाँव में, सभी के घरों में काम किया करती थीं, और सभी घरों की सदस्या थीं। सब के साथ शामिल थीं पर किसी एक परिवार की नहीं
थीं। बहुत दिनों से कुछ लिखने की इच्छा हो रही थी। बार-बार मन में यह विचार आ रहा है कि मैं उनके बारे में अपने भावों को व्यक्त
करूँ,
उनके के बारे
में कुछ लिखूँ.......अगर आप पूछते हैं क्यों?.... तो इसका जवाब सिर्फ इतना है कि ‘पता नहीं’। इस पता नहीं मे बहुत कुछ बताने लायक होता है , पर वो बातें
फिर कभी।
उस साधारण सी महिला के साथ मेरा खून का संबंध तो था नहीं, शायद दिल का रिश्ता ही है जो बार-बार मुझे याद आती है उनकी। मैं ही क्या, गाँव के वह सभी लोग जो उनके समय में थे, आज भी उनकी बात करते हैं। बचपन मे,छुट्टियाँ हम अक्सर अपने गाँव मे बिताया करते थे। गाँव जाने पर हमारे
आकर्षण का केंद्र होती थी नोखा ईआ(ईआ दादी को कहते हैं )। वह इतनी भोली और सरल
स्वभाव की थीं
कि खुशबू वाला
तेल,(संभवतः चमेली का रहा हो ) भी उन्हें किसी टोना- टोटके का हिस्सा जैसा लगता था।
एक बार की घटना बताऊँ मैं आप
सबको,
गाँव के सबसे
प्रतिष्ठित और सम्पन्न घर में काम करते हुए उन्होंने सिर में दर्द की बात कही तो
उसी प्रतिष्ठित घर की बेटी ने, जो पढी-लिखी, सुंदर और एक बैंक अधिकारी की पत्नी थी, अपने हाथ से ही कोई बढ़िया तेल, बिना किसी नफासत के, उनके सिर पर डाल दिया (आज के युग मे शायद ही कोई ऐसा
करे )। फिर क्या था
उस घर से निकलते ही उनका ड्रामा शुरू हो गया। .... पूरे गांव में घूम घूम कर उस
प्रतिष्ठित महिला और
अपने ही गांव की बेटी के टोटके का गुणगान करने में उन्होंने कोई कोर कसर नहीं
छोड़ी....... गाँववाले
उनके गुणगान का
भरपूर आनंद लेते थे ....लेकिन वह बेचारी सबसे बड़े बुझे मन से कहतीं "....फलां
..बहिनी का जाने कौन टोना कर देहली "।......गांव वालों के लिए नोखा ईआ मनोरंजन का माध्यम बन गई थीं ...... गाँव की कोई महिला यदि कहीं
जाते समय उनसे कह कर जाती कि “पतोहिया आज अकेल बा , तनी ध्यान
दिहल जाई’ (घर
में बहू अकेली है जरा ध्यान दीजियेगा, देखभाल की जिम्मेदारी आपकी ही है ) ..... फिर तो बहू को एक मिनट भी चैन से
रहने नहीं देतीं।..... बहू का हालचाल जानने के लिए.... ना जाने कितनी बार उसे आवाज
लगातीं....... इतनी बार कि जवाब देते देते ही बहू थक जाए और सोचती कि क्यों सासू
माँ ने इन्हें मेरी देखभाल के लिए कहा।
एक बार की बात है, बहू ने घर की जैसे ही साफ सफाई की, बाहर से उस सरल महिला ने आवाज लगाई, बहू से कुछ पूछा.... भीतर से बहू ने कुछ जवाब दिया..... उस सरल स्वभाव वाली, थोड़ा ऊँचा सुनने वाली,...... दुबली पतली काया वाली,...... बुजुर्ग महिला ने न जाने क्या सुना और क्या समझा कि..... लगभग आधे घंटे बाद, एक टोकरे में, मिट्टी लगी छोटी -छोटी लकडियाँ लाकर उस, थोड़ी देर पहले साफ किए गए बाहर के कमरे,...... (जिसे गांव में दालान कहते हैं)..... में ला कर झम्म्म की आवाज़ के साथ पटक दिया........... बहू बेचारी समझ नहीं पा रही थी कि उस निश्छल महिला पर गुस्सा करे या हंसे।
एक बार की बात है, बहू ने घर की जैसे ही साफ सफाई की, बाहर से उस सरल महिला ने आवाज लगाई, बहू से कुछ पूछा.... भीतर से बहू ने कुछ जवाब दिया..... उस सरल स्वभाव वाली, थोड़ा ऊँचा सुनने वाली,...... दुबली पतली काया वाली,...... बुजुर्ग महिला ने न जाने क्या सुना और क्या समझा कि..... लगभग आधे घंटे बाद, एक टोकरे में, मिट्टी लगी छोटी -छोटी लकडियाँ लाकर उस, थोड़ी देर पहले साफ किए गए बाहर के कमरे,...... (जिसे गांव में दालान कहते हैं)..... में ला कर झम्म्म की आवाज़ के साथ पटक दिया........... बहू बेचारी समझ नहीं पा रही थी कि उस निश्छल महिला पर गुस्सा करे या हंसे।
चूँकि पहले से ही उनका रोजगार, सबके घर का काम करना ही था इसलिए बुजुर्ग होने के बाद भी उन्हें लगता था कि
सारे काम वह अब भी
कर सकती
हैं।........ लोग उनकी तसल्ली के लिए,उनके करने योग्य
कोई काम उन्हें
बता देते,
जिससे वह बहुत
खुश हो जाया करती थीं
और पूरी
जिम्मेदारी से उसे पूरा करने की कोशिश करती थीं। जिस उम्र मे लोग दूसरों पर
आश्रित हो जाते हैं , उस समय भी काम करना ही पसंद था उनको। लोगों को लगता था कि ईया मानसिक
संतुलन खो चुकी हैं। अकेले बुजुर्ग इंसान , वो भी गरीब को बुल्ली (धौंसीयाना) करना लोगों कि फितरत मे तब भी आज जितना ही था। पर आत्मसम्मान से भरी हुई नोखा ईया अपना
वजूद कायम रखे हुए थीं।
जिस दिन वो मरीं उस दिन पूरे गाँव मे शोक था , कोई उनकी मृत्यु
को उनकी मुक्ति कह रहा था , तो कोई उनके जल्दी चले जाने कि शिकायत
ईश्वर से कर रहा था । पर गाँव का हर बच्चा और जवान जो उनकी गोद मे खेला था बस शून्य
मे निहार रहा था और एक खालीपन जी रहा था। गाँव कि वो बहुएँ भी दुखी थीं , जिन को अपनी बहू मान कर नोखा ईया ने हुकुम चलाये थे । ये इस गाँव की दादी, बुआ, सास , काकी
सब कुछ थीं । ये एक ऐसी अर्थी जिस पर लेती हुई औरत हर एक घर की सदस्य थी , जिसे सब घाट तक छोड़ कर आना चाहते थे।
ऐसे ही पता नहीं कितने किस्से समेटे इस संसार से विदा होने बाद भी, बार बार उस सरल, बुजुर्ग महिला की याद आ जाती है। शायद कुछ अनोखी थी इसीलिए ..पूरे गांव की नोखा (अनोखा) ईआ थीं।
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