समीक्षक: पद्माकर द्विवेदी
नये साल पर 3 किताबें मेरे स्टडी में दाख़िल हुईं। Mayank Pandey की -' पलायन पीड़ा प्रेरणा', Amor Towels की A gentleman in Moscow और अशिमा गोयल की इंडियन इकॉनमी इन 21सेंचुरी। इसमें जो पहली क़िताब मैंने खत्म की वह है कोरोना त्रासदी की पृष्ठभूमि पर लिखी गई एक बेहद शानदार क़िताब-' पलायन पीड़ा प्रेरणा'। खुशी की बात रही कि शुरुआत एक बेहद अच्छे चयन से हुई। यहां बात इसी पढ़ी गई क़िताब की।
*क़िताब में अच्छा क्या रहा
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पलायन पीड़ा प्रेरणा' लेखक की पहली क़िताब है। कोरोना त्रासदी के हज़ार पहलू और क़िस्सों में लेखक ने 50 क़िस्सों को अपनी क़िताब में जगह दी है। मगर क़िताब में शामिल ये किस्से ख़ालिश फ़िक्शन नही हैं। बल्कि ये जीवन का वह तथ्य हैं जो इस अविश्वास भरे और मूल्य से च्युत हो चुके दुनियावी जीवन में इंसान और इंसानियत पर भरोसा पैदा करने की उम्मीद बोते हैं। यह जीवन की वो कहानियां हैं जिसके केंद्र में कोई महामानव नही बल्कि अपने स्वेद कणों की कीमत पर अपनी नियति से लड़ता -जूझता 'लघुमानव' है। इन लघुमानवों की कहानियां कितनी विराट हैं, यह पुस्तक से गुज़रने के बाद ही पता चलता है।
कई बार जिसे इतिहास नही दर्ज कर पाता उसे साहित्य दर्ज करता है। यह क़िताब अपनी इस कोशिश में सफल रही है। क़िताब में कोरोना त्रासदी के माध्यम से हमारे आस-पास की ज़िन्दगियों की पीड़ा और उस पीड़ा से उपजी प्रेरणा को बड़े ही सिलसिलेवार और संवेदनात्मक तरीके से पाठकों के सामने लाया गया है।
त्रासदी के बेहद कठिन वक़्त में किस तरह इंसान ने इंसान का हाथ थामे रखा और अपनी जिजीविषा के फूलों को खिलाए रखा इन कहानियों में बहुत सुभीते से उभरकर सामने आया है। क़िताब इस तरह से लिखी गई है कि इसे हम साहित्य की किसी चिर-परिचित विधा में कैद नही कर सकते। यह पुस्तक लेखक के अपने ही शब्दों में-'पीड़ा का इंद्रधनुष है'। इस क़िताब की भावभूमि पीड़ा की वह उपत्यका है जिसके किसी नितांत निजी अनुभव में ही अज्ञेय ने कहा होगा-
"दुख सब को माँजता है, और चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना वह न जाने, किंतु जिन को मांजता है ,उन्हें यह सीख देता है कि, वह सब को मुक्त रखें।
पढ़ते हुए लगा कि जैसे लेखक को फ़िल्मों और सिनेमा से ख़ासी मोहब्बत है। जगह-जगह पर खूबसूरत फ़िल्मों के 'लिरिक्स' के हवाले से अपनी बात कहने का सलीका अच्छा बन पड़ा है। क़िताब में त्रासदी विमर्श से गुजरते हुए कई नई बातें भी जानने को मिलीं। वो नई बातें क्या हैं उसके लिए पाठक को क़िताब से गुजरना होगा।
क्या रह गया?
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शायद लेखक द्वारा इतिहास में इसके पहले घटी कुछ और त्रासदियों का हवाला क़िताब में दिया जा सकता था जो इस त्रासदी के समरूप रहीं थीं। ख़ासकर इस रूप में कि दो अलग-अलग वक्त की त्रासदियों में क्या कुछ एक जैसा या जुदा रहा। इसके अलावा आसानी से नज़रन्दाज किए जा सकने वाले एक-दो टाइपो जिसे अगले संस्करण में दूर कर ही लिया जाएगा।
अंतिम कहन
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क़िताब पढ़ी और रखी जानी चाहिए। ऐसा इसलिए भी कि हम यह जान सकें कि इस कठिन वक़्त में आदमी होने में हमारे अंदर 'मनुष्य' कितना था? इस रियलटी चेक में किताब सफल रही है।
लेखक मित्रवत भी हो और भातृवत भी, तो लिखना थोड़ा कठिन होता है। लेखक को अगली क़िताब के लिए शुभकामनाएं।