अनएडवरटाइज्ड / समरेन्द्र उपाध्याय
आज का सूरज, बाजार है और विज्ञापन उसका प्रकाश.
काम की-बेकाम की सारी चीजें जो हमारे पास पसरने को मजबूर है और जिसे हम भोगने को मजबूर हैं; उन सभी का बेरहम जरिया विज्ञापन की विधा है, जो जितनी जीवंत दिखाई पड़ती है उतनी ही बेदर्द भी है.
बाजार विकल्प का भ्रम देता है, विज्ञापन उस भ्रम में वरीयता गढ़ता है और यों चल पड़ता है कारवां कारोबार का.
इसी दुनिया के बाशिंदे हैं समरेन्द्र उपाध्याय,
ये विज्ञापन की दुनिया जिसमें ना दिन १२ घंटे का होता है और ना ही रातों को ही मयस्सर होते हैं उसके घंटे.
समरेन्द्र जी साझा कर रहे हैं इस दुनिया की मायावी परतों को सिलसिलेवार...!
दिल्ली की किताब / शचीन्द्र आर्य
किसी अज़ीम शायर ने क्या खूब कहा है-
मीलों तक पसरी दिल्ली का यह भी एक तवारुफ़ है,
कुछ अफसानों की कब्रें हैं कुछ कब्रों के अफसाने हैं.
ग्यारह बार उजड़ी और हर बार और उम्दा बसी देहली अपने आप में बोलती तारीख है. शहर की शाम औ सहर बस अव्वलों से नहीं बनती, यह मुकम्मल होती है आम से. इसी दिल्ली के हवाले से लोकप्रिय ब्लॉगर श्री शचीन्द्र आर्य नवोत्पल के लिए नियमित स्तम्भ की शुरुआत कर रहे हैं, उन्वान रखा है, "दिल्ली की किताब ".
बेहद करीने से एहसास तह कर रखते जाते हैं, शचीन्द्र. इनके ब्लॉग पर वे सभी तहें छुई जा सकती हैं. अनुभव के रंगीन फाहे वे उड़ेलते जाते हैं, हर्फ़ मुस्कुराते जाते हैं.
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