नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Thursday, December 29, 2016

#8# साप्ताहिक चयन: प्रार्थनाएं/ *अहर्निश सागर'

अहर्निश सागर
नवोत्पल यूँ तो साहित्य की हर विधा का मंच है पर यकीनन पहला ईश्क इसे कविताओं से ही है। ऐसे में कोई कवि जब कविता पर कुछ कहता है तो रूककर छककर तत्व-अर्थ छूने को जी चाहता है।

"कविताएं वे उदास प्रार्थनाएं हैं
जिन्हें मैं ईश्वर से छिपाता हूँ
लेकिन मैं उन्हें छिपा नहीं पाऊंगा
अगर ईश्वर मेरे घर में
मेरी प्रेमिका या पुत्री बनकर आया।"
 (अहर्निश सागर)

सिरोही, राजस्थान के अहर्निश सागर एक सुनहले दमकते युवा कवि हैं जिनके पास जीवनराग को महसूसने की इक अपनी ही लय है। दर्शन और शब्दों के उम्दा चितेरे कवि।



 "मैं आस्तिक हूँ
घोर आस्तिक
एक अंध श्रदालु
क्यूंकी
मैनें कुछ ग़लतियाँ की हैं
मैं कुछ और ग़लतियाँ करना चाहता हूँ
मैं कुछ लोगों से नफ़रत करना चाहता हूँ
और फिर
अपने किये की क्षमा चाहता हूँ।"

 (अहर्निश सागर)


इसप्रकार अहर्निश की कवितायेँ एक लय में चलती हैं--कवि को ईश्वर की जरुरत रहेगी मानव बने रहने के लिए और जिजीविषा की कवितायेँ उसे उदास प्रार्थनाएं लगती हैं ! ये प्रार्थनाएं विरोधाभासी हैं, ठीक प्रकृति-लय की माफिक। अहर्निश जी की 'प्रार्थनाएंइस बार की नवोत्पल साप्ताहिक चयन की चयनित प्रविष्टि है।

आदरणीया डॉ. दीप्ति जौहरी जी  ने इस बार समीक्षक की महती जिम्मेदारी सम्हाली है। बारीक समझ और सफल अध्यापन के साथ ही साथ जेंडर इश्यूज पर शोधपरक लेखन आपकी साहित्यिक संवेदनशीलता तो बढाता ही है, इसे एक स्तरीय महत्ता भी प्रदान करता है। 

आइये इस मणिकांचन संयोग के विविध विन्यास निरखें..!!! (डॉ. श्रीश)


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रविवार की सुबह एक बच्चा प्रवेश करता हैं चर्च में
प्रार्थना के बीच टोकता हैं पादरी को-
"तू भटक गया हैं पादरी, चल मेरे साथ चल
------मैं तेरा घर जानता हूँ

पादरी, प्रार्थना के उपरांत
बच्चे को उसके घर छोड़ आता हैं

किसान जमीन पर घुटने टेक
प्रार्थना करता हैं बारिश के देवता से
सुदूर आकाश में उड़ते गिद्ध
प्रार्थना करते हैं अनावृष्टि की
विरोधी प्रार्थनाएं टकराती हैं आकाश में
असमंजस में पड़ा बारिश का देवता
निर्णय के लिए एक सिक्का उछालता हैं

पहाड़ की नोक पर
उग आये सूरज को देखकर
बच्चा प्रार्थना करता हैं--
काश, ये सूरज गेंद की तरह टप्पे खाता
उसके पैरों में आकर गिर जाएँ

बच्चों की प्रार्थनाओं से घबराया हुआ ईश्वर
अपने नवजात पुत्र का सिर काट देता हैं

हम अपनी प्रार्थनाओं में
लम्बी उम्र की कामना करते हैं
कामना करते हैं सौष्ठव शरीर
और अच्छे स्वास्थ्य की

लेकिन उस युद्ध ग्रस्त देश में
जब प्रार्थना के लिए हाथ उठते हैं
वे कामना करते हैं-
हमारे सीने को इतना चौड़ा करना
की कारतूस उसे भेद हमारे बच्चों तक ना पहुंचे
हमें घर की सीढ़ियों से उतरते हुए गिरा देना
ताकि औरतों को लाशों के ढेर में हमें खोजना ना पड़ें

हे ईश्वर
जब युद्ध प्रार्थनाओं को भी विकृत कर दें
तू योद्धाओं से उनकी वीरता छीन लेना

बुद्ध ने अपने अंतिम व्याख्यान में
प्रार्थनाओं को निषेध कर दिया

कही कोई ईश्वर नहीं,
तुम्हारी प्रार्थनाएँ मनाकाश में
विचरती हैं निशाचरों की तरह
और तुम्हारा ही भक्षण करती हैं

भिक्षुक, प्रार्थनाओं से मुक्ति के लिए
प्रार्थना करते हैं
और भविष्य के लिए मठों में
काठ के छल्ले लगाते हैं  
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 अहर्निश सागर

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डॉ. दीप्ति जौहरी

प्रार्थना, मनुष्य का ईश्वर तक पहुँचने का पुल है। मनुष्य अपने जीवन की विभिन्न अनिश्चिताओंं से आक्रांत हो ईश्वर की गुहार लगा उठता है इसमें किसी की पुकार ,किसी और के पुकार के विरुद्ध भी हो सकती है ।परंतु वो परम सत्ता तो सब के लिए है उसे सब की सुननी है ,निरपेक्ष भी रहना है परंतु ये निरपेक्षता भी किसी के तो सापेक्ष ही होगी । मनुष्य की क्षमताओं की आखिरी सम्भावना है ईश्वर से पुकार ....समस्त वायुमंडल आच्छादित है प्रार्थनाओं से , आकाश गुंजित है प्रार्थनाबिद्ध मन्त्रों से ,कंपित है अस्फुट मानवीय स्वरों  से , और  ये  सभी मानवीय कामनाएं यदि अलग अलग की जाये तो स्वयं ईश्वर भी असमंजस में पड जायेगा कि वो क्या करे।   .....  एक ही मार्ग बचता है जहाँ ये सभी स्वर आबद्ध हो ,एक सांझी धुन का अविष्कार करे जो मनुष्य के चित्त को बहा ले जाये ऐसे दुनिर्वार डगर पर जहाँ आस्था प्रमुख हो और निमित्त अंतर्ध्यान ।

कवि ,कविता के माध्यम से ईश्वर के मानववादी होने की वकालत करते करते भी अंत तक आते आते उसके अस्तित्व पर संदेह करने लगता है जहाँ वह बौद्ध दर्शन का सहारा लेते हुए ,स्वयं ही इन प्रार्थनाओं के औचित्य,अर्थवत्ता पर शंका करने लगता है।

कविता के प्राम्भ से ही ईश्वरीय सत्ता और मानवता का घालमेल  बेहद सुंदर रूपको के माध्यम से धीरे धीरे परवान चढ़ता है , मध्य में  आकर ज्यों  ही  ईश्वर की सामर्थ्यता  कीें स्थापना की ऒर बढ़ता है  (परस्पर विरोधी प्रार्थनाओं की पुकार सुनने के रूप में) तभी परमसत्ता पुनः स्वयं को संशयात्मक  स्थिति में पाती है (निर्णय के लिए सिक्का उछालने) । अंत तक आते आते परम सत्ता को पूरी तरह चुनौती मिल जाती है जब बुद्ध का रूपक समस्त प्रस्थापनाओं को ख़ारिज करते हुये प्रार्थनाओं की व्यर्थता को इंगित करता  है तथा  परमसत्ता के लिए प्रतीत्यसमुत्पाद के सिद्धान्त को समर्थन देते है और बुद्ध रीति-रिवाजों, प्रार्थना और पूजा के आडंबरों के सख्त खिलाफ़ थे.

और अब कविता की शुरू से बात करे तो .... प्रार्थना के लिए नियत दिवस पर  एक बच्चा जो मानवता का  निर्दोष आद्य प्रारूप है वह बिचौलिये ( पादरी )  से परमसत्ता और मानव के बीच से हटने को कहता है । परन्तु बिचौलिया उसे फिर उसी मुकाम पर ले आने में सफल होता है जहां उसकी मध्यस्थता कायम है ।

कृषक और गिद्ध की प्रार्थनाएं विरोधाभासी है । जगत चूँकि विरोधाभासों  के द्वन्द और उनके संश्लेषण की सतत प्रक्रिया से ही निर्मित होता है जिससे प्रार्थनाओं के अस्तित्व और सार दोनो  पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है ।

कवि पुनः कहता है कि कुछ प्रार्थनाएं इतनी अबोध है कि यदि उनकी पहुंच का कोई मार्ग उस  द्वंद तक होता तो सम्भव था कि सृष्टि के चलते रहने तथा नव उत्पत्ति की संभावना ही खत्म हो जाती ।इसी सन्दर्भ में संभवतः नवजात  पुत्र का  सिर काट लेना प्रयुक्त किया गया है। 


मानवता की साधारण परिणामपरक प्रार्थनाओं को तो उसकी अनिश्चिता के भय से निगमित किया जा सकता है पर कवि की चिंता है कि मानवता का एक हिस्सा ऐसा भी है जिसकी प्रार्थनाएं  गर  मकबूल हो जाये तो हम मानवता के विकृत आखिरी सिरे पर  खड़े होंगे।


चिंतित कवि इन प्रार्थनाओं के आकाश में टँगे   विकृतियों के इंद्रधनुष  पर धूप खिलाने के  वास्ते  बुद्ध की  तरफ देखता है । बुद्ध जो मानवता को  अनीश्वरवाद का   ,अनित्यवाद का , अनात्मवाद का और क्षणभंगुरता के साथ प्रतीत्यसमुत्पाद का संदेश दे रहे है ,उनके अनुगामी ही  प्रार्थनाओं से मुक्त मानवता की बात कर सकते है ।


ये संसार मानस संसार है । इस संसार में निहित मानवता का अपने तथाकथित हितार्थ में ताना गया प्रार्थनाओं का मानस आकाश  कवि कहता है कि इतना प्रदूषित हो गया है कि मानवता के स्वास्थ्य को  खतरा है । इसलिए इस आकाश की स्वच्छता  के लिए जरूरी है कि  इनसे मुक्ति की प्रार्थना ही सबसे बड़ा अभीष्ट  होना चाहिए ... इसीलिए शायद काठ के छल्ले लगाये जातेहै ।


कवि की प्रार्थना कविता पढ़ते समय मन में बार -बार सर्वेश्वरदयाल की मानववादी कविता याद आती है जहाँ ईश्वर और मनुष्य की सत्ता एकाकार हो जाती है और उनकी पंक्तिया जहाँ वो कह उठते है  .... " इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा कुछ भी नही है न ईश्वर न ज्ञान न ..."
 यहां भी कवि ईश्वर और मानव के सम्बन्ध को रेखांकित करते हुए कविता को ईश्वर के प्रति मोहभंग तक विस्तृत कर ले जाता है जहाँ वह निराला की पंक्तियों से किंचित निकट आती हुयी जान पड़ती हैं  कि  " जय तुम्हारी देख भी ली रूप की गुण की ,सुरीली " ।  इस स्तर पर आ  के  कविता  पुनः सर्वेश्वर जी के ईश्वर के प्रति नकारात्मक रुख जिसमे वो कहते है ... " शक्ति नही मांगूंगा" या " यही प्रार्थना है प्रभु तुमसे जब हारा हूँ तब न आइये"   ... तक तो नही पहुचता न ही चुनौती देता है वरन बुद्ध के चिंतन के प्रसंग को छेड़ के एक ..... या कहे अंतर्मन के तार को छेड़ देते है । जहाँ पाठक अपनी अपनी व्याख्या के लिए स्वतंत्र है।


यहाँ यह महत्वपूर्ण है कि उपर्युक्त सभी कविताओं में भिन्न कवि अपने काव्य में प्रार्थनाओं के अस्तित्व को स्वीकारते हुए उसके स्वरूप में अपनी वैचारिक  भिन्नता काव्य में प्रकट करते है परंतु अहर्निश इस कविता में प्रार्थना के अस्तित्व और सार दोनों पर प्रश्न चिन्ह लगाते हुए  प्रार्थना मुक्त संसार की कामना का काव्य रचते है । यही बात इस कविता को इस मोड (mode)की अन्य कविताओं से विशिष्टता प्रदान करता है ।


अंततः कहना ही होगा इतने गूढ़तम दार्शनिक अर्थों को स्वयं में समेेट काव्य में पिरोते हुए ,कवि अपनी बात को कोमलता से धीरे से कह जाता है ,जो अत्यंत ही दुर्लभ प्रतिभा और प्रखरता का परिचायक है ।

*डॉ. दीप्ति जौहरी 


Wednesday, December 28, 2016

पशु: आर.वैरमुत्तु

ओ मनुष्य / नमन करो पशु को
विशेषकर / वंदना करो बंदर की
अपने पूर्वजों को / कर पहला नमस्कार
हर पशु/ तेरा गुरु
कुछ सीखा / सीखकर
आचरण कर तदनुसार
पशु हम से हैं
कहीं अधिक स्वाभिमानी
हाथी के पाँव पड़ा हो
कोई हाथी
सुनी नहीं ऐसी खबर

चूहों ने
ढोई नहीं पालकी
बिल्ली की

हिरणों ने
दबाए नहीं पैर / भालू के

या तो / मुक्त गगन में
या /मृत्यु की खाई में
बीच का जीवन/जीते नहीं पशु

जंगल में
नही होता
अन्धविश्वास
वहाँ
शुतुरमुर्ग भी करते नहीं कौतुक
आग पर दौड़ने का
मदोन्मत मनुष्य / बोल
हाथी को छोडकर
किसी जानवर का
फूटता है मद?
दिखा सकते हो
वन के अंदर
कोई
ईसाई तोता, हिंदू बाघ
जैन बगुला, बौद्ध बैल
सिक्ख शेर, या इस्लामी हिरण ?

ओ मनुष्य !
भले ही/ तुम जितना
बन ठन लो,
दसों उँगलियों में
पहन लो अंगूठियाँ
परख-चुनकर/पहन लो
जरीदार रेशमी अंगरखा
फिर भी
रहेगी सुंदर नारी ही
मनुष्य जात में / नर नहीं
हाँ यदि/पाना चाहते हो
नर में सोंदर्य ?
पशु को छोडकर
कोई गति नही
हरिणों में सींग हो
तो बारहसिंगे का
हाथियों में
दांत होते हैं
गजराज के
मयूरों में पंख हो
तो कलाभ का
कुक्कुट-जाति में
कलगी रखता है मुर्गा
यह जात का मानू ?
नहीं होता नगर में
होता बस वन में

ओ मनुष्य !
गरूर मत कर / यह सोचकर
कला पर अधिकार
केवल तुम्हारा है
इस धरती का
पहला गीत / पवन का गीत
दूसरा गान/तरंगों का तराना
तीसरा तराना/ कोकिल काकली
तेरा गान/चौथा ही है
कोयल की तर्ज पर
गाने लगा/तू ?
गुरु की वंदना करने से पूर्व
वत्स!
कोयल की वंदना कर
ओ मनुष्य / मान ले
मर मिट गया तू
बनेगा क्या तेरे शरीर से ?
तेरी चर्बी से/बन सकते हैं
बस सात साबुन
तेरे कार्बन से/बनेंगी / नौ हजार पेंसिलें
शरीर के लोहे से / बनेगी
केवल एक कील
जानता है / पशु का
मोल क्या है ?
मृत बाघ का
नख भी बनता
आभूषण
बनता लेखनी
कपोत पंख भी
बनेगा बटुआ
चमड़ा सांप का
जूता बनेगी
पशु की खाल
आयी समझ में तेरी!
मर कर भी रहता है
मूल्य पशु वर्ग का ?

ओ मनुष्य
गौर किया है
देवताओं के वाहन पर?
एक देव ने अपनाया वृषभ को
एक आरूढ़ हुआ मयूर पर
एक बैठ गए शान से चूहे पर
एक विराजे खगराज गरुड़ पर
अभी तक / सारे देवता
पशुओं से ढोये गए/ मानव से नहीं
क्या देवता नहीं जानते
मानव से/ढोने को कहा जाए/ तो
वह तस्करी कर देगा?
विश्वास करता है
मनुष्य/ इश्वर पर
किन्तु इश्वर / नहीं करता विश्वास
मनुष्य पर
जीने के लिए ही जन्मा है
तनिक बदल ले
अपनी जीवन शैली
रीत बदलकर देखो तो
खुद बांग देकर
जगाओ मुर्गे को/बड़े तडके
कंधे पर/लिए तोता
चलो न दफ्तर!
मनभावन बिल्ली के संग
करो/मध्याहन का भोजन
कितने दिन / देते रहोगे
अपनी पत्नी को
स्नेहविहीन चुंबन दो
खरगोश के बच्चों को भी
तुम्हारे बिस्तर पर
सजे/एक तीसरा तकिया,
उस/छोटे-से तकिये पर
सो जाये/तुम्हारा प्यारा पिल्ला
विधानसभा में /पशु-समस्या पर
उठाओ/नियमापत्ति का प्रश्न
गाय के थन के नाम
घोषित करो/राजपत्रित अवकाश
सप्ताह में एक दिन

बंद करो दो/हाथी की
सर्कसी कंदुक-क्रीड़ा
यह
हाथी जाति के लिए
अंतर्राष्टीय अपमान है

सम्मान करो/पशुओं का
वे सभी/वेश बदले
मानव हैं/परिणाम विकास की
कड़ियाँ हैं
प्यार करो/पशुओं से
वे
तुम्हारे प्यार के लिए तरसते
पंचेन्द्रिय शिशु हैं

अंत में –
केवल एक प्रश्न/जवाब दो
दिल पे हाथ रखकर
कुछ पशु ऐसे हैं / जो
मनुष्यों द्वारा वंदनीय हैं
क्या यहाँ पर / ऐसे मानव भी हैं
जो/पशुओं द्वारा वंदनीय हों

तेलगु मूल : श्री आर.वैरमुत्तु
हिन्दी रूपान्तर : डा. एच बाल सुब्रहमण्यम

प्रस्तुतीकरण: गोविन्द जुनेजा

Thursday, December 22, 2016

#7# साप्ताहिक चयन: जंगल एक आवाज है/ *वीरु सोनकर'

वीरू सोनकर
 इस सप्ताह नवोत्पल सम्पादकीय समूह ने चयनित की है युवा रचनाकार वीरू सोनकर जी की एक महत्वपूर्ण कविता 'जंगल एक आवाज है' को। वीरू जी फेसबुक पर अपना परिचय इन शब्दों में देते हैं: "निष्पक्ष, जिद्दी, घातक और आत्मसाक्षात्कार की धुन में दुनिया की भीड़ में खोया एक अथक यात्री" ! 

एक संजोग ही है कि वरिष्ठ पर्यावरणविद व जमीनी कार्यकर्त्ता अनुपम मिश्र जी का महाप्रयाण हुआ है, ऐसे में इस कविता का सन्देश और भी मौजू हो जाता है। प्रकृति शब्द का जीवंत पर्याय जंगल ही होता है,  किन्तु जो दृष्टि 'जंगली' शब्द को  'शुद्धता व सहजता' की बजाय ''असभ्यता' का पर्याय बनाती है, उस दृष्टि की पड़ताल आवश्यक है। कृत्रिमता को कबसे हमने इतनी वरीयता और अधिकार दे दिए कि उसने प्रकृति को अपने थोथे परिप्रेक्ष्य थोपने शुरू कर दिए...? एक पुरावलोकन की मांग करती हो जैसे ये कविता ! 

इस महत्वपूर्ण कविता पर अपनी सम्मत टिप्पणी देने का अपर्णा अनेकवर्णा जी का अनुरोध स्वीकार किया है श्री सुरेन सिंह जी ने। आप श्रम प्रवर्तन विभाग में वरिष्ठ अधिकारी हैं पर मन रमता है शब्दों और उनके अनगिन अठखेलियों में। सुरेन जी ने कविता को अपनी दृष्टि से परखा है और सम्यक आलोचना की है। आइये देखते हैं यह समानांतर आयोजन ! (डॉ. श्रीश)


गौरव कबीर के कैमरे से 


जंगल एक आवाज है
_______
जंगल गायब नहीं है
वह देर से बोलता है
अपने सन्नाटे की अलौकिक रहस्यमयता लिए
हमारे भीतर चीखता है
कहता है
मेरी प्रतिलिपि दूर तक बिखरी पड़ी है
तुम्हारे ड्राइंगरूम के बोनसाई से लेकर स्वीमिंगपूल की उस नकली पहाड़ी नदी तक
जंगल एक अमिट स्मृति है
सड़को पर छाई सुनसान रात उस बाघ की परछाई है
जो तुम्हारे शहर कभी नहीं आता
जंगल अचानक से हुए किसी हमले की एक खरोंच है
एक जरुरी सबक कि जंगल कोई औपचारिकता नहीं निभाता
जंगल एक बाहरी अभद्र नामकरण है
जंगल दिशा मैदान को गयी
एक बच्ची को अचानक से मिला एक पका बेलफल है
जंगल बूढ़े बाबा के शेर बन जाने की एक झूठी कहानी है
जंगल खटिया की बान सा सिया हुआ
एक घर है
जंगल वह है जो अपने ही रास्तो से फरार है
जंगल हर अनहोनी में बनी एक अनिवार्य अफवाह है
जंगल एक रंगबाज कर्फ्यू भी है
जो तय करता है रात को कौन निकलेगा और दिन में कौन
जंगल जो बारिश में एक चौमासा नदी है
तो चिलचिलाती धूप में बहुत देर से बुझने वाली एक प्यास भी
जंगल सब कुछ तो है पर विस्थापन कतई नहीं है
जंगल एक आवाज है
जो हमेशा कहती रहेगी
कि
तुम्हारा शहर एक लकड़बग्घा है
जो दरअसल जंगल से भाग निकला है !
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【 वीरु सोनकर】


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वीरू की कविताएं फेसबुक पर पढता रहा हूँ । इन कविताओं में एक कवि की ऊर्जा और रवानगी दिखाई देती है। कवि अपनी कविताओं के बिंम्ब और विषय अपने आसपास के वातावरण से अपनी सजग दृष्टि से लेता है और काव्य में उतारने की कोशिश इस भांति करता है कि पाठक तक सम्प्रेषण हो । 

आज प्रस्तुत कविता में कवि जंगल का बिंम्ब काव्य में पिरोकर  पाठक तक जंगल शब्द और प्रत्यय के वितान को इस भांति प्रेषित करना चाहता है कि पाठक तक जंगल और उसकी व्यवहारिक दुनिया में बने रिश्ते उभर सके ।


कविता जब शुरू होती है कि जंगल गायब नही है / वह देर से बोलता है ... तो पाठक मन में शब्द साहचर्य से संजीव का उपन्यास जंगल जहां शुरू होता है , अनुज लुगुन की कविता .. अल सुबह शुरू होता है दांडू का काफिला ,शहर की ओर  और एक कविता जिसके कवि का नाम याद नही आ रहा हंस में छपी थी  काफी पहले कि जंगल जहाँ खत्म होता है / दरअसल घर वही शुरू होता है ।

इन सभी शब्द साहचर्यो  में  जंगल को लेकर भिन्न आयाम सामने आते है । वीरू अपनी कविता में जंगल की उपस्थिति  को जीवन में महसूस कराना चाहते है । एक ऐसी मौजूदगी जो सतह पर पता ही नही चलती पर वो है और महसूस करने से चाक्षुष हो जाती है ।


जंगल के प्रत्यय में इस कविता में व्यक्ति का अंतर्मन भी शामिल है जो बाहरी दुनिया के आवरण के हटते ही ,मौन के सानिध्य में सामने खड़ा हो जाता है तो अपने अंशो के इस व्यवहारिक जगत में यत्र तत्र बिखरे होने से भी अपने होने को दर्शाता है ।

जंगल एक ऐसा वितान जहां कोई औपचारिक विधान हमारे और हमारी भावों के मध्य नही रह पाता ।वह किसी नाम रूप से नही बंधा पर फिर भी हमारे कई मनोभावों को अनचाहे ही नियंत्रित भी करता है ।  जैसे श्रीकांत वर्मा कहते है कि कितना ही बचना चाहो हस्तक्षेप से ... उसी तर्ज पर कवि कहता है जंगल कुछ भी हो ,किसी भी तरहसे हमे  प्रभावित करता हो पर  उससे कैसे भी बच नही सकते ,पलायन नही कर सकते.. क्योंकि वह विस्थापन नही है ।  और अंत में कवि स्पष्ट भी कर देता है क़ि दरअसल  मातृघर  से भागी हुई सभ्यता  का  इस व्यवहारिक दुनिया में तथाकथित विकास क्रम का क्रोड है ...जंगल । 

एक सुंदर कविता वीरू ने अपने पाठकों को दी है । जबकि  जंगल का जो बिंम्ब और प्रत्यय लिया  है वह काफी प्रसिद्द कविताओं और उपन्यास में लिया गया है । इस प्रचलित तथ्य के बावजूद भी कवि का शब्द विधान ,कहन की सहजता और बोधगम्यता के साथ अमूर्तन होने की रहस्यमयता को निभाने की सलाहियत कविता को विशिष्ट बनाती है । 

वीरू के काव्य कर्म के लिए शुभकामनायें!

सुरेन सिंह
सुरेन जी



Monday, December 19, 2016

जिन्दगी १, २, ३ : जयकृष्ण मिश्र 'अमन'

जयकृष्ण मिश्र ''अमन'
आइये आज नवोत्पल के पुराने सदस्य जयकृष्ण मिश्र 'अमन' जी की कुछ कविताओं का आस्वादन करते हैं। जिन्दगी शीर्षक से कविता लिखना कम रिस्की नहीं है-मसलन, अनुभव जितने भी हो, पड़ेंगे कम ही, एक के अनुभव से दूसरे को कितना महसूस होगा, कहना मुश्किल, जो महसूसा वो इतना व्यक्तिगत कि प्रकटन के आप्रसंगिक होने का भी भी समानांतर भय, आदि-आदि। फिर भी जब एक युवा कवि जिन्दगी जैसी पुरजोर शै पर कुछ कहता है तो यकीनन उसने उन खट्टे-मीठे खट-पटों में से कुछ उम्दा बटोर लिया होगा...आइये निरखते हैं वह ही. (डॉ. श्रीश)










ज़िन्दगी - १

एक सादा कागज फैलाकर
मैंने उस पर लिख दिया
'जीवन'
इस प्रतीक्षा में
कि, वह 'तरल' हो बह पड़ेगा
'जल' जैसा ।
पर वह जम गया
'बर्फ' की तरह
'कठोर', 'चिकना', 'ठण्डा'.............

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ज़िन्दगी - २

 ज़िन्दगी की छेदही ओखली में
वक़्त के मूसल से
कूट रहा हूँ,
सपनों का
सूखा हुआ अमावट ।
इस उम्मीद में
कि शायद अब भी
निकल ही आये
थोड़ा सा रस.......

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ज़िन्दगी - ३


नई से नई भीत में भी
पड़ जाती है छिनकट,
उभर आते हैं
गड्ढे और फफोले ,
हल्की सी छुअन भी
उसे भुरभुरा कर देती है,
बुरादा-बुरादा
झरने लगता है।
यक़ीनन.........
वक़्त की तरह
ज़िन्दगी भी रेत है.....

------------------------------- "अमन"

Friday, December 16, 2016

#6# साप्ताहिक चयन: अधूरे/ *अशोक कुमार'

कभी शब्दों की लड़ियों से बनती भाषा संवेदनाओं को उजागर करती है तो कभी कुछ ऐसा भी कह रही होती है जो अनकहा सा होता है। जिसे कहना भी नहीं होता, वह भी इंगित कर रही होती हैं शब्दावलियां ! शब्दों के शरीफ जाने कितने होते हैं पर बहुधा अर्थ में परछाइयाँ शामिल होती है, बेईमानियों की। किताबें सच की रपट भी लिए होती हैं और झूठ के सिद्धांत की रूपरेखा भी बुनती हैं। पूरे में भी जैसे कहीं कुछ अधूरा है। अधूरे कई मिल पुरे होने का स्वांग रचते हैं, पर वे भी अधूरे ही रह जाते हैं। अधूरेपन के इन पेंचोखम को लेकर अद्भुत कविता रची है अशोक कुमार जी ने। अशोक कुमार जी अनुभवी कवि हैं और सेन्ट्रल कोलफील्ड्स लिमिटेड में वरीय प्रबंधक( कार्मिक ) के पद पर कार्यरत हैं। इस विशिष्ट विन्यास वाली कविता पर अपनी उत्कृष्ट टिप्पणी का योग दिया है अपर्णा अनेकवर्णाजी ने । अपर्णा जी सक्रिय संवेदनशील शब्दशिल्पी हैं, अंग्रेजी व हिंदी साहित्य पर समान अनुराग। आइये कविता और टिप्पणी का आस्वाद लें: (डॉ. श्रीश )


अशोक कुमार 
अधूरे
___

मैंने ईमानदारों में ईमानदार खोजा
धार्मिकों में धार्मिक 

ईमानदार भी थोड़ा बेईमान था
धार्मिक भी थोड़ा विधर्मी

मैंने आस्तिकों में आस्तिक ढूंढा
नास्तिकों में नास्तिक
आस्तिक थोड़े नास्तिक निकले
नास्तिक थोड़े आस्तिक

मैंने सच्चों में सच्चा खोजा
झूठों में झूठा
सच्चे थोड़े झूठे थे
झूठे थोड़े सच्चे

मैंने पुरुषों में पुरुष तलाशा
स्त्रियों में स्त्रियाँ
पुरुष किंचित स्त्रैण निकले
स्त्रियाँ थोड़ी मर्दानी

मैंने दुनिया खोजी

दुनिया में पूरी दुनिया कहाँ थी.

*अशोक कुमार 


[कविता को देखें तो इन सभी शब्दों से हमारा परिचय पुरातन है। जबसे ये गढ़े गए होंगे उससे पहले से महसूस होते रहे होंगे। पर अपने अपने अर्थों को क्या कभी सम्पूर्णता दे सके होंगे ये संभव ही नहीं।

यहाँ हम संभवतः जीवन की मजबूरियाँ, अस्तित्व का प्रश्न, 'सर्वाइवल ऑफ़ द फिटेस्ट' की बात करें। जो कि हम सही भी सिद्ध कर देंगे। पर फिर भी हम इन शब्दों को उनकी पूर्णता तक नहीं पहुँचा सकते। यही मानव होने की जीजिविषा है। यही मानव होने का संघर्ष है।

यहाँ समाज भी एक प्रमुख कारक है। क्योंकि अकेला व्यक्ति जैसे चाहे रहे, कोई उसका सतत् मूल्यांकन कर लेबल नहीं लगाएगा। वह अपने एकांत में संपूर्ण है, इन शब्दों से परे शायद। पर मनुष्य एक सामाजिक प्राणी ही रहा है और जीवित भी इसी आधार पर है। तो ये सारे शब्द जो कि लेबल हैं वह उसे पर लागू होंगे।

अपने अधूरेपन में ही जीवन चल रहा है। एक आदर्श की ओर बढ़ रहा है जानते हुए कि वह केवल आदर्श स्थिती है। कभी संभव नहीं हो सकेगी।
पूरी दुनिया की खोज अपने-आप में बहुत व्यवहारिक नहीं और अमूर्त भी है। ये व्यक्ति व्यक्ति पर निर्भर करता है कि उसकी खोज है क्या।

पर अपने लेखन के मुख्य बिंदु को कवि ने पुन: यहाँ भी दोहराया ही है। वो यथार्थ में जीते हुए अपने आस पास की विद्रूपताओं को देख आगे किसी आदर्श की ओर अग्रसर हैं। और जैसा कि अंतिम पंक्ति में स्पष्ट है वो इस खोज का अंत, यथार्थ में वापस लौटना ही समझते हैं। हाँ निराशा के पुट को हम अनदेखा नहीं कर सकते।

शायद यही एक कवि का संसार है। यथार्थ और आदर्श के बीच का संघर्ष और उसके प्रति उसकी जागरुकता।]

अपर्णा अनेकवर्णा  
अपर्णा अनेकवर्णा 

Wednesday, December 14, 2016

माहौलिया तंत्र औ लाईन में लगा लोक

कहते हैं कि लोकतंत्र में जनता ही जनार्दन है। सरकारें जनता के लिए काम करती लगती हैं। लोगों को लगते रहना चाहिए कि यह उनकी सरकार है। कभी इंडिया शाईन कर रहा था, लोगों को लगा नहीं शायद। भारत-निर्माण भी हो रहा था, लोगों को लगा नहीं शायद। ‘लोग’ से ज्यादा ‘लगना’ महत्वपूर्ण है। माहौल सब कुछ है । इंडिया चमकाने में मेहनत है, इसकी जरुरत नहीं है; भारत निर्माण करने में मेहनत है, इसकी भी जरुरत नहीं है-माहौल पुरजोर बनना चाहिए कि इंडिया चमक रहा है और हो रहा भारत निर्माण, आगे बढ़ रहा उत्तम प्रदेश, बदल रहा बिहार…..! ये सब टी.वी. पर हो रहा है। रेडिओ पर हो रहा है। लाइक हो रहा है, कमेंट हो रहा है, शेयर हो रहा है। गजब माहौल है। स्वागत है, यह एक माहौलिया लोकतंत्र है। लोग सोच रहे-हो तो रहा है। एक दिन में थोड़ी होता है, विकास। इतना कुछ इकठ्ठा है, टाईम लगता है।
ऊपर जो हो-हल्ला मचता है, नीचे तक रिसता है। ऊपर कहा गया-भ्रष्टाचार है, नीचे माना गया –हाँ, अब और नहीं करना है बर्दाश्त…! ऊपर कहा गया-अपना धन विदेशों में जमा है,-नीचे माना गया-उसे लाना पड़ेगा। ऊपर कहा गया-काला धन आस-पास ही है, नीचे माना गया- लग लेंगे कतार में। ऊपर का रायता पसरता-पैंठता जरुर है पेंदी तक। पहले कुछ गगनभेदी लोग होते थे काडर में। हर जनसभा में जरुरी होते थे। उनसे माहौल बनता था, खूब झमाझम नारे गिरते थे। लोग आते थे, सुनते थे, झूमते थे। साक्षरता आ गयी राष्ट्रीय मिशन बनकर। पढ़े-लिखे-नए वोटबैंक बनने से इंकार करने लगे। पारम्परिक वोटबैंक को भी वे झूला झुलाने लगे। गगनभेदी चूकने लगे। फिर आया इन्टरनेट। इन नए पढ़े-लिखे लोगों का जुगाड़। सब कुछ एक क्लिक पर हाज़िर। रोटी भी कपड़ा भी मकान और ज्ञान भी। सब इन्टरनेट पे। अब तो वैलेट भी।
चुनाव का यज्ञ तो वोटबैंक की आहुति मांगता है। फिर व्यवस्था की गयी, नेटभेदियों की। नेटभेदी जानते हैं, इन्टरनेट का गणित। नेटभेदी माहौल गढ़ने लगे, लगातार, अनथक। वोटबैंक संवारने लगे। रेडीमेड ज्ञान के कैप्सूल दनादन दागे जाने लगे, लाइब्रेरी तो वैसे ही दूर थी..और नाइंटी वन के बाद तो फुर्सत भी कहाँ थी। तो तंत्र बनाया गया, बन गया। यज्ञ संपन्न हुआ। नेटभेदी को भी विश्राम करना था। पर यह क्या…ये तो लगे पड़े हैं, अब भी। सबके नेटभेदी काम पर लगे हुए हैं। चुनाव तक चलता है, सब। आयोग भी प्रचार की अनुमति देता है। लेकिन सरकार एक बार बन जाने के बाद वह सबकी हो जाती है।
पांच साल बारीकी से देखना होता है, ताड़ना होता है सरकार को। क्योंकि अपनी साझी संपत्ति पर बिठाते हैं हम सरकार को। इन्हें किसी प्रोत्साहन की आवश्यकता नहीं है, संसद कोई ओलम्पिक नहीं हैं। पुचकार की जरुरत नहीं हैं इन्हें। ये स्वयं खड़े होते हैं चुनाव में, वायदा करते हैं विकास का। इनकी आलोचना आवश्यक है। इन्हें ये नहीं लगना चाहिए कि सरकार बन गयी तो खुली छूट है। चुनाव कोई खेल नहीं है और ना ही सत्ता कोई मैडल। विकास को पैरवी नहीं करनी पड़ती, वह महसूस होता है, दिखता है। पांच-दस सालों में सबकुछ स्पष्ट हो जाता है। पर ये पूर्णकालिक सैलरीसेवक नेटभेदी चुनाव बाद भी माहौल बनाए रखते हैं। सरकार की पैरवी करते हैं। उसे प्रोत्साहित करते हैं, मानो सरकार कहीं फंस गयी है, उसे धक्के की जरुरत है। उसे पुचकारते हैं, अतीत का उलाहना दे सरकार का वर्तमान का दामन धुलते रहते हैं। यकीनन मेहनत का काम है। करते हैं ये मेहनत चौबीस घंटे इन्टरनेट पर।
चैनल को भी चलना है चौबीस घंटे, ऐसा बाजार ने कहा है। इतना कच्चा माल कहाँ से आएगा..फिर..वो भी जल्दी…सबसे तेज सबसे पहले..! चौबीस घंटे ब्रेकिंग होगा, यकीनन कहीं कुछ तार-तार होगा। न्यूज-व्यूज पैदा करना पड़ेगा। बाजार कहता है कि कारखाना बंद नहीं होगा। ग्राहक खोजो और नईं जरूरतें पैदा करो…कि कारखाना बंद नहीं होगा। तो इतना कच्चा माल इन्टरनेट से आएगा…इधर से उधर, उधर से इधर। नेटभेदिये तरह तरह के हैं…तो वे तरह तरह से काम आते हैं। नेट का माहौल टी.वी. ओढ़ लेता है। एक इम्पोर्टेड माहौल। देखिये, बना हुआ है, माहौल। आप फिर एक बार आलोचना नहीं कर सकते। सरकार की आलोचना देश की आलोचना है। नेटभेदियों का फास्टफूड रेडीमेड ज्ञान..!
ऐसा नहीं है सरकार अच्छा काम नहीं करती। ऐसा भी नहीं हैं कि विकास के लिए प्रयत्नशील नहीं है, पर उसकी आलोचना में क्या दिक्कत है..! ईमानदारी सौ सवालों की रामबाण दवाई है। सवाल होते रहना एक जागरूक लोकतंत्र की निशानी है। बेसिरपैर के भी सवाल, सवाल होते हैं। बस सवाल पूंछने के लिए ही पूंछे जाने वाले सवाल भी सवाल ही होते हैं, सरकार जवाब देकर उन्हें बेसिरपैर का या गैरजरूरी या मामूली साबित कर सकती है। पर सवाल तो लेना होगा। हम डॉक्टर से क्लिनिक में और इंजिनियर से साईट पे बेसिरपैर के सवाल करते तो हैं …वो सरल कर चीजों को समझाता है। इन्टरनेट पे टैग करना आसान है। इसलिए ही शायद आजकल टैग टाँके जा रहे। किसी को भी परम देशभक्त का टैग देना आसान है, किसी को ईमानदारी का टैग तो किसी को भी देशद्रोही का टैग दे देना आसान है।
नकली नोट और काला धन दो समस्याएं हैं। इन दोनों से ही अर्थव्यवस्था को चोट लगती है। यकीनन नोटबंदी का फैसला गलत नहीं है, ठीक उसी तरह इस कारण हो रही समस्याओं को उठाना भी गलत नहीं है। सबसे अधिक जिम्मेदारी उसकी होती है जो सत्ता में होता है। सरकार सर्वाधिक जवाबदेह है। गोपनीयता का विकलांग बहाना बनाकर सरकार ये नहीं कह सकती कि इसलिए ही कुछ तैयारियां पूरी नहीं हो पायीं। सबको पता है, नए बर्तन खरीदने के बाद ही पुराने फेंके या बेचे जाते हैं। सवाल जायज है या नाजायज है, ये मुख्य नहीं है; जवाब आ रहा है या नहीं यह मुख्य है, पारदर्शिता मुख्य है। आज ‘लोक’ लाईन में खड़ा है। नेटभेदिये उन्हें बॉर्डर सा महसूस करा रहे हैं; ये टैगिंग ‘आम’ की भी बेईज्जती है और सीमा के सैनिक की भी। लोकतंत्र अगर लाईन में खड़ा हो तो शांत रहकर सामान्य की प्रतीक्षा करनी चाहिए ना कि जो है उसे ठीक साबित करने में ऊर्जा लगानी चाहिए। परिवर्तन असहजता तो लाता ही है, पर सवालों से असहजता अपारदर्शिता को सूचित करता है। सरकार को कदम तो उठाने ही होते हैं और कोई कदम शतप्रतिशत सही नहीं हो सकता तो यह तो स्वाभाविक है कि स्क्रूटिनी तो होगी।
पूंछने दीजिये ‘लोक’ को, ‘तंत्र’ बचा रहेगा।

Thursday, December 8, 2016

#5# साप्ताहिक चयन: बहुत हैं मेरे प्रेमी/ *अम्बर रंजना पाण्डेय'

अम्बर रंजना पाण्डेय 
 आज की भाषिक लीपापोती के इस युग में ऐसे तथाकथित 'कविताकारों' की तादात बहुत बढ़ी है कि, कविता जिस भाषा में सम्भव होती है, उससे उनका सम्बन्ध बड़ा उथला है। भाषा को वे माँग-पूर्ति के नियमों की  वस्तु समझते हैं, कविता के भाषिक सरोकार तो दूर की वस्तु है।

दर्शन के विद्यार्थी 'अम्बर रंजना पाण्डेय' ने हिन्दी के अतिरिक्त, संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी और गुजराती भाषा में भी कविताएं लिखी हैं। अम्बर की कविताएं कविता के समकालीन परिदृश्य में अपनी सायास भिन्नता से न सिर्फ एक बहस आमन्त्रित करती हैं, बल्कि लोक और जीवन को नए ढंग से देखने का प्रस्ताव भी करती हैं। इस बार के 'नवोत्पल साप्ताहिक चयन' में 'अम्बर रंजना पाण्डेय' की कविता "बहुत हैं मेरे प्रेमी" पर अपनी टिप्पणी का योग कर रही हैं, 'डॉ. चेतना पाण्डेय'। चेतना जी स्वयं भी मासूम और मार्मिक अनुभूति की ख्यातिलब्ध कवयित्री हैं। आइये इस कविता और टिप्पणी का आस्वाद करें (डॉ जय कृष्ण मिश्र "अमन")

बहुत हैं मेरे प्रेमी




मैं तो भ्रष्ट होने के लिए ही
बनी हूँ
बहुत हैं मेरे प्रेमी
पाँव पड़ता हैं मेरा नित्य
 ऊँचा-नीचा

मुझसे सती होने की आस
मत रखना, कवि

मैं तो अशुद्ध हूँ
घाट-घाट का जल
भाँत-भाँत की शैया
भिन्न-भिन्न भतोर का भात
सब भोग कर
आई हूँ तुम्हारे निकट

प्रौढ़ा हूँ, विदग्धा हूँ
जल चुकी हूँ
यज्ञ में, चिता में, चूल्हे में

कनपटियों की सिरायों में
टनटनाती रहीं सबके, दृष्टि में
रही अदृश्य होकर, जिह्वा पर
मैं धरती हूँ कलेवर
उदर में क्षुधा, अन्न में तोष
निद्रा में भी
स्वप्न खींच लाया मुझे
और ले लिया मेरे कंठ का चुम्बन

फिर कहती हूँ, सुनो
ध्यान धरकर

मैं किसी एक की होकर नहीं रहती
न रह सकती हूँ एक जगह
न एक जैसी रहती हूँ

नित्य नूतन रूप धरती हूँ
मैं इच्छावती
वर्ष के सब दिन हूँ रजस्वला
मैं अस्वच्छ हूँ टहकता हैं मेरा
रोम-रोम स्वेद से
इसलिए मैं लक्ष्मी नहीं हूँ
न उसकी ज्येष्ठ भगिनी

मैं भाषा हूँ, कवि
मुझे रहने दो यों ही
भूमि पर गिरी, धूल-मैल
से भरी

जड़ता में ढूँढ़ोगे तो मिलेगा
सतीत्व, जीवन तो स्खलन
हैं, कवि

जल गिरता हैं
वीर्य गिरता हैं
वैसे मैं भी गिरती हूँ
मुझे सँभालने का यत्न न करो
मैं भाषा हूँ
मैं भ्रष्ट होना चाहती हूँ ।
                                                       [अम्बर रंजना पाण्डेय']



डॉ. चेतना पाण्डेय 


[श्वसन या स्पन्दन की लय टूट जाय तो शरीर निष्प्राण हो जाता है। जल का प्रवाह बाधित हो तो उसकी स्वच्छता नष्ट हो जाती है। दुर्गन्ध उठने लगती है। प्रवाहमयता की यह शर्त भाषा पर कुछ ऐसे ही लागू होती है। भाषा भी समय की चाल में चाल मिलाकर चलने से इनकार कर स्थिर बैठ जाये तो वह भी अपनी जीवन्तता खोने लगती है। 
इस कविता में भाषा स्त्री रूप धरकर हमारे सम्मुख आती है। परम्परा और सामाजिक मर्यादाओं का बोझ ढोते-ढोते ऊबी हुई विद्रोहिणी स्त्री  पग-पग पर अपने लिये निर्मित अदृश्य कारागारों पर चीखती है कि कभी वह भी तो,वैसे भी तो हो जैसे वह चाहती है। उसके लिये अब स्वच्छन्दता,बहकने का अधिकार सतीत्व की गरिमा से ज़्यादा महत्वपूर्ण हो उठा है। क्योंकि युगों-युगों की वर्जना की जडता उसकी चेतना और रसस्रोत  को सोख रही है। 
अम्बर रंजना पाण्डेय की यह कविता, उपयुक्त भाषा क्या है,  प्रश्न का उत्तर भी तलाशती है। वस्तुत: देशकाल के बदलाव के साथ-साथ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में बदलाव स्वाभाविक है और आवश्यक भी। भाषा संवाद का माध्यम है। ज़रूरत के आधार पर वैदिक संस्कृत का लौकिक संस्कृत तक आना और फिर पालि,प्राकृत,अपभ्रंश से खड़ी बोली  तक की यात्रा भाषा के प्रवाह को ही दर्शाती है। ढेरों परिवर्तनों के बाद भाषा यहाँ तक पहुँची है

घाट-घाट का जल
भांत-भांत की शैया
भिन्न-भिन्न भतोर का भात
सब भोग कर
आई हूँ तुम्हारे निकट

 आज तत्सम,तद्भव,अंग्रेजी और उर्दू के मिश्रण और मिश्रण में किसकी कितनी मात्रा हो को लेकर विमर्श अनवरत चलता है। कवि यहाँ भाषा की प्रवाहमयता और सहजता की वकालत करते हैं।यह ज़रूरी भी है। एक ही घर में रहने वाले बच्चे,युवा,प्रौढ और वृद्ध की भाषा, स्त्री और पुरुष की भाषा में अन्तर है। सोशल मीडिया,फिल्में और प्रसार के माध्यम भाषा को रोज़ नया कलेवर देते हैं। कविता मानती है कि भाषा स्वयं पर कोई अंकुश,अनुशासन नहीं चाहती। वह आवश्यकता, परिस्थिति और देशकाल के अनुसार नित नया कलेवर धारण कर लेना चाहती है

नित्य नूतन रूप धरती हूँ
मैं इच्छावती
वर्ष के सब दिन हूँ रजस्वला

कविता ने स्वयं के प्रवाह के साथ पूरा न्याय करते हुए भाषा की पक्षधरता की कुशल ढंग से पैरवी की है। स्त्री और भाषा के विमर्श को कवि ने अपने अनूठे अंदाज और टटकेपन के साथ व्यक्त किया जिसे आद्यन्त पढ़ना कई अनुभूतियों की लम्बी यात्रा से धीरे-धीरे गुजरने जैसा है।
 परिनिष्ठित, परिमार्जित या मानकीकरण की शर्तों के बावजूद सत्य तो यही है कि भाषा जन की है चाहे वह बहुत व्यवस्थित और संश्लिष्ट न भी हो। अत: सहजता बरकरार रखना जीवन्तता बनाये रखने की आवश्यक शर्त भी है कदाचित् ।]

                                                                                                          *डॉ. चेतना पाण्डेय