नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Sunday, December 30, 2018

#४# विश्वविद्यालय के दिन: अंजनी कुमार पांडेय

यूंइग क्रिश्चियन कालेज ( ईसीसी)

समय की रफ्तार का पता ही नही चलता , दिसंबर का आख़िरी दिन आ गया , एक और साल बीतने को है। बीतते साल के साथ जिेंदगी भी लगता है भाग रही है । हमें लगता है अभी बहुत समय है पर ऐसे ही जिंदगी बीत जाती है। इंसान केवल देख सकता है बंद आँखों से , कुछ पल जो अब नही जिये जा सकते , कुछ लोग जो अब नही हैं जीवन मे , कुछ ग़लतियाँ जो नही होनीं थी , और वह बहुत कुछ जो इंसान बदलना चाहता है बीते हुये कल मे । 


बीता कल हमेशा से बेहतरीन लगता है और इंसान हमेशा से बीते कल को दोबारा जीना चाहता है । इन्हीं ख़यालों मे आज फिर से जिंदगी के बीते पलों की किताब खोलने का दिल किया और अनायास ही मै डूब गया उन बीते दिनों मे जो अब बस यादों का रूप लेकर ही वापस आ सकते हैं । शायद अतीत हमेशा सुंदर ही होता है, या कहा जाये कि अतीत हमेशा वर्तमान से बेहतर प्रतीत होता है । इन्ही कशमकश मे डूबा हुआ मै , बीते दिनो को खोजता हुआ , यादों मे गोते लगाता हुआ , निकल पड़ा मै अपने शहर ...इलाहाबाद...। 


मानो कल की ही बात हो जब मैंने यूइंग  क्रिश्चियन कॉलेज मे एडमीशन लिया हो। स्कूल से निकलने के बाद जिस आजादी का अनुभव आप कालेज मे करते हैं, वह अनुभव मुझे यूंइग क्रिश्चियन कालेज मे मिला । ईसीसी के नाम से मशहूर मेरा यह कालेज इलाहाबाद के उन संस्थानो मे से है जो वाकई बेहतर शिक्षा के लिये जाना जाता है। अगर जीवन मे थोड़ा बहुत भी कुछ हासिल किया तो वह इसी स्नातक कॉलेज की देन है । कवि प्रदीप के कालजयी राष्ट्रगीतों को जननी यह कॉलेज हर इक विद्यार्थी के  मस्तिष्क पर एक अमिट छाप छोड़ जाता है , कि उसके बाद वह कहीं भी जाये पढ़ने , याद उसे ईसीसी ही रहता है ।



एक अलग सा आकर्षण है इस कालेज मे , अलग सी बनावट है इसकी, एक अलग सा रोमांच है यहां पढने मे ।  यमुना नदी का किनारा,अंग्रेज़ी  हुकुमत के समय की बनी इमारतें और कालेज के बीचोंबीच खड़ा बरगद का पेड़ जिसकी छांव मे बैठकर बहुत सी क्लासेज बंक की गई, जहां चाय के दौर चलते थे, जहां आजाद हवा थी , जहां आजाद ख्याल थे , जहां क्रांति की बातें भी हुई और जहां प्रेमगीत भी लिखे गये, और जहां देखे अनगिनत लडकों ने एक अच्छे जीवन का सपना ।


ऐसा ही एक अच्छे जीवन का सपना मेरे आजाद मन ने देखा था इस कालेज मे । वो सपना कितना पूरा हुआ यह तो मै नही जानता लेकिन एक बात का सुकून है लेकिन यहां के शिक्षकों  द्वारा दी गई शिक्षा आज भी मुझे रास्ता दिखाती है । आज भी देख सकता हूँ खुद को साइकिल से कॉलेज जाते हुये , आज भी देख सकता हूं खुद को नोट्स बनाते हुये, आज भी देख सकता हूं खुद को रात भर पढते हुये, आज भी याद हैं वह सीढियां जिन्होने मंजिलें दिखाई , आज भी याद हैं वो पाठ जो जीवन के फलसफे बयान करते थे, और आज भी जीवित है वो जिजीविषा जो ईसीसी ने मुझमे जगाई ।  


शायद हर लड़के का कालेज ऐसा ही होता है, शायद हर कालेज यही सिखाता है, शायद हर कॉलेज आपको तराशता है , शायद हर कालेज ईसीसी होता है , बस लोग किसी और नाम से याद करते हैं । 

आज घूम आया मै फिर से अपने कालेज , आज पी आया मै फिर से चाय की एक प्याली, आज सुन आया मै फिर से एक प्रेमगीत, और आज फिर से जी आया मै बीते हुये कुछ साल ...।


कल फिर एक नया साल आयेगा , 

कल फिर लोग ख़ुशियाँ मनायेंगे , 

कल फिर कॉलेज छूटे हुये सालों मे एक साल बढ़ जायेगा ...!!!


शेष फिर कभी...




@अंजनी कुमार पांडेय 

पुराछात्र इलाहाबाद विश्वविद्यालय 

लेखक भारतीय राजस्व सेवा २०१० बैच के अधिकारी हैं और वर्तमान मे प्रतिनियुक्ति पर विदेश मंत्रालय मे रीजनल पासपोर्ट ऑफिसर के पद पर सूरत मे तैनात हैं ।

Thursday, December 20, 2018

#३# विश्वविद्यालय के दिन: अंजनी कुमार पांडेय

नाम इलाहाबाद ...!



समय कभी नहीं रुकता, अपनी गति से भागता रहता है । समस्त बदलावों को आत्मसात करते हुये। इसी भागते निष्ठुर समय के साथ मेरा शहर इलाहाबाद से प्रयागराज बना दिया गया, और देखते ही देखते इस बदलाव को जनता ने स्वीकार भी कर लिया। पता नहीं क्यों मगर मैं इस बदलाव से असहज हूं और भावनात्मक रूप से अपने को इलाहाबाद के समीप ही पाता हूँ । जन्म से लेकर जवानी तक मेरे ग्रामदेवता ने मेरे शहर का नाम मुझे इलाहाबाद ही बताया है। 

तुम हमेशा मेरे लिये इलाहाबाद ही रहोगे ...!

मैं तुम्हारी कल्पना किसी और नाम से कभी भी नहीं कर सकता ....!

चित्र साभार: आउटलूक हिंदी


जब आँख खोली तब अपने आप को फूलपुर, इलाहाबाद में पाया, स्कूल गया नैनी, इलाहाबाद में, ग्रेजुएशन किया जिस कॉलेज से वह था गउघाट इलाहाबाद में, पोस्ट ग्रेजुएशन किया इलाहाबाद विश्वविद्यालय से । दूसरे शहरों के लिये ट्रेन पकड़ी इलाहाबाद रेलवे स्टेशन से, बचपन से लेकर जवानी तक जो भी जिया इलाहाबाद में और जो भी किया इलाहाबाद में। अचानक पता चलता है कि अब जीवन के हर इक पन्ने से इलाहाबाद हटाना पड़ेगा और अब हर जगह इलाहाबाद की जगह प्रयागराज लगाना पड़ेगा । 

पता नहीं मगर क्यों मेरी  पहचान मुझसे छीन ली गई, 

इलाहाबाद शब्द मे मेरी आत्मा बसती रही है हमेशा से, 

काश मै रोक सकता समय के इस खेल को। 


मैं एक हिंदू हूँ और संगम मे लाखों बार डुबकी लगाई होंगी मैंने। हर एक कुंभ मेले में गंगा-यमुना का आशीर्वाद लिया है मैने। ऋषि भारद्वाज के आश्रम मे भी हर महीने दर्शन के लिये जाता रहा हूं। संगम किनारे स्थित लेटे हुये भगवान हनुमान आराध्य हैं मेरे । परंतु अगर मेरी आस्था अगर मेरे धर्म से है तो मेरी आस्था मेरी मिट्टी से भी है। मेरी मिट्टी में अगर पवित्र संगम है जहाँ मैंने अनगिनत डुबकियाँ लगाईं हैं तो मेरी मिट्टी में खुसरो बाग़ भी है जहाँ तमाम शामें मैंने गुज़ारी हैं। मेरी मिट्टी में अगर अलोपी देवी का मंदिर है तो मेरी मिट्टी में ऑल कैथिड्रल गिरिजाघर भी है जिसके मैंने तमाम चक्कर लगाये हैं । मेरी मिट्टी में अगर चंद्रशेखर आज़ाद पार्क है तो मेरी मिट्टी में मिंटो पार्के भी है। मेरे लिये यह सब मिलाकर ही मेरा इलाहाबाद बनता है । 

प्रयागराज नाम में वह बात नहीं जो इलाहाबाद में है क्योंकि अगर प्रयागराज एक धर्म है तो इलाहाबाद एक दर्शन है, और यह दर्शन तमाम धर्मों को समाहित किये है अपने भीतर । प्रयागराज गंगा जमुनी तहज़ीब से डिस्कनेक्टेड है और इसीलिये शायद मुझसे भी । 


तुम हमेशा मेरे लिये इलाहाबाद ही रहोगे ... 

मैं तुम्हारी कल्पना किसी और नाम से कभी भी नहीं कर सकता ...!

जब आँखें खोलीं थी तब तुम इलाहाबाद थे और जब आँखें बंद करूँगा तब भी तुम इलाहाबाद ही रहोगे मेरे लिये। मुझे नहीं पता कि तुम्हारी उत्पत्ति अल्लाह आबाद से हुयी है या फिर इला देवी से, मुझे नहीं पता कि तुम्हारा नाम हिंदू है या मुसलमान । मुझे सिर्फ़ इतना पता है कि तुम्हारे नाम से मेरे जीवन का हर लम्हा जुड़ा हुआ है,और किसी भी शासक को मेरी यादों से, मेरे जीवन की तमाम स्मृतियों से छेड़छाड़ करने का कोई हक़ नहीं था ।

किसी शासक ने सत्ता के जोश में प्रयाग को अल्लाह आबाद कर दिया था, आज के शासक ने प्रयागराज कर दिया । कल कोई और आयेगा और वह कोई नया नाम दे देगा । कितने नाम बदलेंगे शासक - श्रंगवेरपुरम , प्रयाग, प्रयागराज , कौशांबी , इलाहाबास , इलाहाबाद और ना जाने क्या क्या नाम । हिंदुस्तान के इतने लंबे इतिहास में कितने ही नाम हुये हैं इस शहर के। जिस शासक का जो मन किया उसने वह नाम कर दिया, नहीं सोचा जनता क्या चाहती है , नहीं सोचा जनता की भावनायें क्या है । आज भी वही किया गया है, पाँच सौ साल पहले जो ग़लती हुई थी , उसको दोहरा कर आज के राजा को पता नहीं क्या मिलेगा और पता नहीं कौन सा स्वाभिमान वापस आयेगा । 

कैसा लगेगा अगर कोई किसी का नाम बदल दे , कैसा लगेगा अगर कोई आपकी पहचान बदल दे , कैसा लगेगा अगर रातोंरात कोई आपका इतिहास बदल दे , कोई आपकी तमाम स्मृतियाँ बदल दे । मुझे भी ऐसा लगा है कि मानो किसी ने मेरा पूरा बीता हुआ जीवन बदलने की कोशिश की हो । मुझे पूरी श्रद्धा है प्रयाग नाम से , मुझे अपार प्रेम है हिंदू धर्म से ,पर मेरा शहर मुझे इलाहाबाद के नाम से ही पसंद था और मैं अपने आप को इसी नाम से कनेक्ट कर पाता हूँ ।

यह मेरा इलाहाबाद है ...!

मेरे बचपन का इलाहाबाद , 

मेरी जवानी का इलाहाबाद , 

मेरी हर इक कहानी का इलाहाबाद , 

और 

काग़ज़ पर कोई कुछ भी कर दे ,

मेरे दिल में मेरे शहर का नाम इलाहाबाद ही रहेगा , 

उसे कैसे मिटायेगा दुनिया का कोई भी शासक ....।

भाग-२ के लिए क्लिक करें !

@अंजनी कुमार पांडेय 
पुराछात्र इलाहाबाद विश्वविद्यालय 
लेखक भारतीय राजस्व सेवा २०१० बैच के अधिकारी हैं और वर्तमान मे प्रतिनियुक्ति पर विदेश मंत्रालय मे रीजनल पासपोर्ट ऑफिसर के पद पर सूरत मे तैनात हैं ।

Sunday, December 9, 2018

#२# विश्वविद्यालय के दिन: अंजनी कुमार पांडेय

इलाहाबाद और सिनेमा 


स्कूल की दहलीज़ लाँघने और कॉलेज कैम्पस मे क़दम रखते ही मेरे जीवन मे जो सबसे बड़ा परिवर्तन आया ,  वह था बिंदास फ़िल्में देखने की आज़ादी ...  

इसको आज़ादी कहने के पीछे भी एक वजह है ....

स्कूल मे पढ़ते समय आप हमेशा एक दायरे मे रहते हैं या फिर यह बोला जाये कि एक दायरा बना दिया जाता है आपके चारों ओर ... और उस दायरे को समय समय पर परिवार और टीचरों द्वारा जायज़ भी ठहराया जाता है ... कहाँ जाना है , कब जाना है , क्या करना है , कैसे करना है , क्या बनना है और क्या नही बनना है ....
श्री अंजनी पांडेय 


क्या नही करना है उसमें सबसे पहला नंबर था फ़िल्मों का ...फिल्में देखना मेरे समय मे बहुत अच्छा नहीं माना जाता था , ख़ासकर तब कि जब आप मध्यम वर्ग से ताल्लुक़ रखते हों ...तमाम तरह की बातें सुनने को मिलती थी अगर आपने फिल्म की बात की ....

फलाने का लड़का बहुत पिक्चर देखता है ...तुम उस समय पिक्चर हॉल के सामने क्या कर रहे थे ...आजकल के लड़कों को बस सिनेमा देखना है , पढ़ाई लिखाई से कोई मतलब नही ....

कुल मिलाकर फ़िल्मे देखना एक बुरी आदत का प्रतीक थी ...यहाँ तक की फ़िल्म देखने का ख़याल आना भी किसी अपराध से कम नही...

ख़ैर जब तक स्कूल की चारदीवारी मे रहे , पिक्चर हॉल से दूर ही रहे ... जैसे ही कॉलेज मे इंट्री हुई, मानो पिक्चर हॉल ख़ुद ही चलकर मेरे कॉलेज पहुँच गया हो ... फिर तो मानो एक सिलसिला सा बन गया हो फ़िल्मे देखने का ... मैं , और फ़िल्मे , और बेहिसाब फ़िल्मे ...


इलाहाबाद मे उन दिनों बहुत सिनेमाघर थे और हर तरह के ... तब मल्टीप्लेक्स नही होते थे ...बस सिंगल स्क्रीन टॉकीज और दिन के चार शो ...कुछ सस्ते कुछ महँगे कुछ अच्छे और शायद कुछ घटिया ... लेकिन हमें सबसे सुलभ थे ... गौतम -संगीत -दर्पण  और पायल-झंकार ... मेरे यूइंग क्रिश्चियन कॉलेज के पास , दो मिनट मे पहुँचना , सबसे आगे वाली सीट और सिर्फ़ पाँच रुपये मे ... ख़ूब फ़िल्मे देंखी हैं इन पाँच टॉकीजों मे ...जब मन किया कॉलेज से निकलकर टॉकीज मे और फ़िल्मों के दौर ... पायल टॉकीज के सामने एक छोले चावल की दुकान भी थी...दो रूपयों मे इतना स्वादिष्ट छोला चावल मुझे दोबारा खाने को नही मिला ... 

पैलेस मूवी हॉल, इलाहाबाद 
यूनिवर्सिटी पहुँचने पर एक और टॉकीज आया जीवन मे , लक्ष्मी टॉकीज  ... लक्ष्मी टॉकीज ज़रूर किसी समाजवादी का होगा ... कोई भी पिक्चर हो एक ही दाम ... पहली सीट से लेकर आख़िरी सीट , सब एक जैसी , कहीं भी बैठ जाइये और टिकट चेकिंग वाला केवल टार्च मारता था ... ख़ैर लक्ष्मी टॉकीज पर जो मक्खन ब्रेड खाया कि मानो और कुछ नही स्वाद देगा जीवन भर ....

वह फ़िल्मे , वह समय , वह उम्र , सब कुछ रोमांच जैसा था ... हक़ीक़त से कहीं दूर जाने की इच्छा ...ख़्वाबों मे रहना और ख़्वाबों मे जीना ... और फ़िल्मों ने हमेशा ही उन ख़्वाबों मे भी रोमांच को बढ़ाया है ...

बहुत फ़िल्मे देखी जीवन के उन पांच सालों मे ...कुछ अच्छी फ़िल्मे , कुछ ख़राब फ़िल्मे , कुछ देखने लायक फ़िल्मे और कुछ ना देखने लायक फ़िल्मे ... बहुत कुछ सीखा जो सीखना चाहिये था ...वह भी सीखा जो नही सीखना चाहिये था ... वह दौर बेहतरीन था ,वह साथी लाजवाब थे और वह फ़िल्मे अनमोल थीं ....

आज जब पलट कर वापस देखता हूँ उन सिनेमाघरों की तरफ़ तो लगता है कि किसी विद्यालय से कम नहीं हैं वो ...बहुत कुछ सिखाया उन फ़िल्मों ने जो शायद किताबों मे नही सीख पाता ...डीडीएलजे का राज हो या शूल का समर प्रताप सिंह...सब थोड़ा थोड़ा से बसे हैं कहीं भीतर ...मोहब्बतें का शंकर नारायण अभी भी प्रभावित करता है ...हासिल का गौरीशंकर और रनविजय सिंह अभी भी जीवंत हैं ...सब कुछ ना कुछ सीख देकर गये...

मुझे लगता है कि सिनेमा देखना चाहिये और ख़ूब देखना चाहिये ... सोशल लर्निंग का इससे बेहतर माध्यम कोई नही हो सकता ...

मेरे जीवन के फ़लसफ़े मे फ़िल्मे बेशुमार हैं ...क्योंकि ...मेरे लिये फ़िल्मे देखना एक आज़ादी का प्रतीक हैं ....!

भाग-१ के लिए क्लिक करें !

@अंजनी कुमार पांडेय 
पुराछात्र इलाहाबाद विश्वविद्यालय 
लेखक भारतीय राजस्व सेवा २०१० बैच के अधिकारी हैं और वर्तमान मे प्रतिनियुक्ति पर विदेश मंत्रालय मे रीजनल पासपोर्ट ऑफिसर के पद पर सूरत मे तैनात हैं ।