नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Monday, May 28, 2018

चार्ल्स बडलयर की कुछ कविताओं का हिंदी अनुवाद: अभिषेक 'आर्जव '

देवी नागरानी जी द्वारा किये गए सिंधी कथा संग्रह के हिंदी अनुवाद की समीक्षा करते हुए मैंने सेतु पर लिखा था: 

आर्जव 
"दो भाषाएं अपने साथ दो संस्कृतियों के आरोह-अवरोह भी लिए चलती हैं। उनमें संभव संवाद की गुंजायश अनुवाद टटोलते हैं और दोनों लहरें पारस्परिकता का ताप एवं संवेग साझा कर लेती हैं। अनुवाद का तनिक विचलन इन अन्यान्य सूक्ष्म प्रक्रियाओं को गहरे प्रभावित करती हैं, इसलिए अनुवाद का कार्य एक चुनौतीपूर्ण कार्य तो है ही, साथ ही यह बड़े ही सांस्कृतिक महत्त्व का अनुष्ठान है। दो भिन्न लिपियों का, दो भिन्न भाषाओँ का सम्यक ज्ञान, उनके अनेकानेक विविधताओं के संस्तर का बोध और फिर इनका संयत निर्वहन अनुवाद की प्राकृतिक मांग है।"

आर्जव, अपनी लेखनी में प्रतिबद्ध हैं। उनके सहज अनुवाद में समन्वय का शिल्प देखा जा सकता है।


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चार्ल्स बडलयर उन्नीसवीं सदी फ्रांस के साहित्यिक परिदृश्य के प्रमुख कवि हैं. ९ अप्रैल १८२१को पेरिस में जन्मे चार्ल्स एक प्रखर कवि होने के साथ साथ अपने समय के प्रख्यात कला-आलोचक, महान गद्य लेखक, प्रभावी अनुवादक भी थे. औद्योगीकरण के प्रभाव में तेजी से बदल रहे अपने आसपास के समाज की स्थितियों, हो रहे परिवर्तनों के सापेक्ष एक आम आदमी के जीवन में, मन में, संवेदन में हो रही हलचलों को चार्ल्स ने अपने रचना संसार में बड़ी ही बखूबी से उकेरा है.

हालांकि उन्होंने अपना पहला कविता संग्रह १८४५ में प्रकाशित किया लेकिन उनकी प्रसिध्दि मुख्य रूप से १८५७ में प्रकाशित “फ्लावर आफ़ द ईविल” नामक कविता संग्रह से है. उनके लेखन में मुख्य रूप से  तीव्र प्रेम, काम, हिंसा, शहरी भ्रष्टाचार, बदलाव, लेस्बियनिज्म,तनाव, वीभत्सता, मृत्यु, व्याकुलता इत्यादि बार बार अलग अलग रूपकों में पाठकॊ से सम्मुख आते हैं. प्रस्तुत कवितायें “फ्लावर आफ़ द ईविल” से ली गयी हैं. 

अभिषेक आर्जव; विलुप्त होने की कगार पर एक पुराना ब्लागर !

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अल्बाट्रोस

अक्सर ऊब रहे नाविक पकड़ लेते हैं

समुद्र के महान पक्षी अल्बाट्रोस को,

नीले आकाश का वह सौम्य यात्री

गूढ़ समुद्र में पीछा करता है जहाजों का !


नाविक जब पकड़ लेते हैं उसे, घायल-त्रस्त,

ये व्योम-नृप, पड़े यहां वहां जहाज के तख्त पर,

लिये दृढ़-महान पंख, हो चुके बेकार-सी पतवार-से

घिसटते हैं नाव के ओर छोर पर,


यह मजबूर ,हास्यास्पद यात्री, पड़ा है जो

विकृत और अक्षम, कभी हुआ करता था कितना भव्य !

एक नाविक कोंचता है चोंच में लकड़ी से,

दूसरा हंसता है उसकी लड़खड़ाती चाल पर !


कवि भी! बादलॊं का सहयात्री है! जोहता तूफान भरे दिन,

तीरन्दाजों पर करता उपहास,किन्तु जमीन पर चींखती भीड़ के बीच

वह चल भी नहीं सकता, उसके दृढ़-विशाल पंख

रास्ते की रुकावट बनते हैं !


Amedeo Modigliani's "Iris Tree."

पाठक से !

मूढ़ता गलतियां  लिचड़ता पाप

किये आवृत्त हमारी आत्मा को ,

शिराओं में भरते लिजलिजापन

पालते हैं  हम अपना नपुंसक प्रायश्चित्त

ठीक वैसे ही जैसे सड़क का भिखारी

रखता है अपने नपुंसक पिस्सुओं को !


हमारे कुत्सित  पापों के हैं  क्षीण पश्चाताप,

लेकर सत्य निष्ठा की शपथ  हर बार

हम करते हैं  और व्यग्रता से नए पाप

मानकर की मक्कार आसुओं से धुलेंगे हमारे दाग !


अपनी जगह पर कुंडली मारे बैठा है  जादूयी दैत्य

फेंक कर भ्रम-जाल हमारी बंधुआ आत्मा पर

अपने काले-जादू से सोख लेता है सारा सत्व !


प्रतिपल प्रतिपग चहुँओर  हमारे  दैत्य का साया है

हर कुत्सित अमार्जित वस्तु में सुख हमने पाया है,

घिसटते हैं हम हर रोज नर्क में थोड़ा और  आगे

अनाक्रान्त अविचलित नरक की सड़ांध से !


दरिद्र लम्पट जैसे चूसता चूमता है

किसी अधेड़ वेश्या के नोचे गए पिलपिले वक्ष वैसे ही,

हम मौक़ा पाते ही भोग लेते हैं तुच्छ नीच वर्जित सुख

यूँ कि  किसी सूखे संतरे को हम मसल लेते हैं !


गहरे अंदर करोड़ो बजबजाते कीड़ो -कृमियों की तरह

एक दैत्य गणराज्य हमारे मस्तिष्क में करता है सतत उत्पात

जब हम सांस लेते हैं हमारे फेफड़ो तक पसरती है मौत

दुःख भरे क्रन्दनों की अदृश्य धारा  में आवृत !


नरसंहार दंगे हत्या बलात्कार अगर अभी तक

हमारे सुख का हिस्सा नहीं हुए हैं

नहीं बने हैं हमारे भाग्य का अंग

तो मात्र इसलिए की नहीं  है हमारी शिराओ में इतना दम !


सब सियार तेंदुए भेड़िये,

बन्दर बिच्छु गिध्द सांप

सब चींखते बलबलाते सरकते जानवर

जैसे हमारे अंतस की अनेक बुराईयों की समग्र आवाज !


किन्तु एक जंतु जो  है सबसे ज्यादा फरेबी और मक्कार,

बिना किसी दिखावे के शोरगुल के

वह स्वेच्छया कर सकता है पूरी धरती तबाह

निगल सकता है एक ही झटके में अखिल विश्व !


वह है  बोरियत --

आँखों  मे  मादकता,

दीखते चमकते  आंसू लिए , हुक्का पीते

सपने देखते, हलकी सी मुस्कान लिए

मेरे प्रिय साथी ! मेरे पाखंडी पाठक !

निश्चित तौर पर तुम उसे जानते हो  !


दिन का अन्त

सांझ के धुंधलके में, जब सूरज खो जाता है,

अर्ध-चेतन वह—जीवन—थिरकता नांचता है

अपनी लज्जाहीन, भंगुर गुस्ताखियों के साथ !


जैसे ही प्रेमिल-शीतल रात बिखरती है क्षितिज पर

सब कुछ शान्त कर देती है वह, विलीन हो जाता है

तृषा, लज्जा, क्षोभ, वाष्प बनकर !



कवि खुद से कहता है,“अनन्त दुःस्वप्नों की छाया से

भरा मेरा हृदय, विश्राम मांगती मेरी आत्मा, मेरी मेरुरज्जु ,

पा सकेंगे थोड़ा आराम, अगर मैं लेट जाऊं,

स्वयं को तुम्हारी अंधेरी चादर में लपेट कर, ओ जीवनदायी अंधेरों !”


पूरी तरह एक

शैतान और मैं  कर रहे थे  बातें ,

मेरी खोह में बेपरवाह सा मुझे देख

विनीत भाव से पूछा उसने मुझसे--

''बहुत सी रसपूर्ण चीजों में, श्यामल व रक्ताभ मादकताओं में,

तुम्हें उसकी देह का कौन सा हिस्सा, सबसे अधिक खींचता है ?

क्या है सबसे अधिक मधुर?"


कहा मेरी  आत्मा ने लोलुप शैतान से,

''वह अपनी समग्रता में एक विश्रांति है, स्नेह है!

उसकी देह का कोई एक टुकड़ा नहीं मुझे प्रिय है,


वह भोर का उर्जित तारा है,

स्निग्ध रजनी  की  शांत कर देने वाली अनुभूति है !

उसकी लावण्यता की लय मे खो जाते है चिंतक विचारक !


ओ रहस्यमयी रूपांतरण !

मुझमें, मेरे सब संवेदन एकमेक हो गए है, क्योंकि

उसकी सांसों में भी संगीत है, उसकी भाषा मे मधु-गंध है !


उठान !

घाटियों नदियों झीलों के ऊपर ,

बादलों पहाड़ों जंगलों समुद्रों के ऊपर

सूरज से परे, व्योम के उस पार

सभी धुंधली सीमाओं से आगे !


मेरी स्फूर्त आत्मा ! तुम उड़ो !

जैसे कोई बलिष्ठ तैराक नापता हो समुद्र !

तुम जोत दो अनन्त विस्तार को

अकथ अपौरुषेय उन्माद में !


उठकर इस गंदले वायवीय स्थान से

बहुत ऊपर स्वच्छ हवा में

शोधन करो स्वयं का

साथ ही करो पान स्फटिक-श्वेत-व्योम उद्भूत

पवित्र दैवीय सोमरस का !


जीवन की उदासियों, समस्याओं से परे

जो कर देती है हमारी तीव्रता को श्लथ

उस प्रसन्न मजबूत पंखों वाले व्यक्ति की तरह

छलको ! प्रकाशपूर्ण सूदूरवर्ती विस्तार में !


उस व्यक्ति की तरह जिसके विचार

हंस-बलाका के मजबूत पंखॊं जैसे

हवा में हर सुबह होते हैं गतिशील

जो आच्छादित कर लेता है जीवन को,

समझता है फूलॊं की भाषा

सुनता है न बोलती चीजों की आवाज !

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