अलग अलग तरह के आम एक ही समय में अलग अलग किस्सों की ओर ले जा रहे हैं । कच्चे आमों के किस्सों से लेकर पके #आमों_की_रसीली_दास्ताँ सब एकसाथ खुल रही हैं ।
छवि: आलोक रंजन |
अभी गर्मी उतनी ही है जितनी आधे मई के आसपास अपने उत्तर में होती है । यहाँ केरल में बिना चप्पल के तो नहीं चला कभी लेकिन बचपन में एक हवाई चप्पल के टूटने और दूसरे चप्पल के आने तक की दुनिया में बिना चप्पल के रहने का सुख भी था और उसके दुख भी ! धूप में तप रही जमीन पर पैर नहीं पड़ पाते थे । एक कदम रखा कि शरीर अपना सारा भार दूसरे पैर पर डालने को विवश हो जाता ! मेरे लिए चप्पल की दिक्कत एक दो दिन से लेकर हफ्ते भर तक की ही रहती थी लेकिन मैं जहां रहता था (बिहार ) वहाँ के सौ दो सौ लोग ठीक उसी समय और ठीक उतनी ही धूप में खाली पैर कोई न कोई काम कर रहे होते । उन धूप भरे दिनों में आम की भुजनी / भुजबी / भुजिया का दौर चलता था ।
हम बच्चों के लिए यह बड़ा ही अलग था । ‘मॉर्निंग इस्कूल’ से भागकर या छुट्टी के बाद सीधे गाछी । हमारे पास बड़ों की दाढ़ी बनाने वाली ब्लेड रहती थी । वे ब्लेडें ऐसी जिनसे कई बार दाढ़ी बनायी जा चुकी होती और उनकी ‘धार मर’ चुकी होती थी । हम वे फेंकी हुई ब्लेड और कागज की पुड़िया में नून-बुकनी (नमक – मिर्च का पावडर) लेकर चलते थे । जहाँ कहीं कोई ‘टिकला’ (टिकोला /टिकोरा) मिला कि ब्लेड से छील कर नून बुकनी के साथ चट कर जाते । वैसे यह आदर्श स्थिति थी । बहुत बार ब्लेड साथ नहीं होते तो कई बार केवल नून मिल पाता । इसके पीछे पूरा अर्थशास्त्र काम करता था । नमक की तुलना में मिर्च काफी महँगी होती है सो बुकनी न तो अपने घर से न ही किसी और के घर से आसानी से मिल पाती थी । ऊपर से टिकला खाना सबसे गैर जरूरी काम माना जाता था । उसके लिए डांट पड़ती थी और मार भी । लेकिन वह बच्चा ही क्या जो डांट और मार के डर से टिकला खाना छोड़ दे ! हम धूप में टिकले बटोरते और कहीं बैठ के खाते । कभी कभी बिना नमक मिर्च के भी खा जाते थे । आज शायद ही यह सब हो पाये ! लेकिन सबसे ज्यादा मज़ा उन दिनों में आता था जब दोपहरें गंभीर होने लगती थी , टिकले थोड़े बड़े हो जाते थे । उन दोपहरों में माँ- मौसियों और थोड़ा बाद में मामियों की दुनिया खुलती थी ।
मेरी माँ लंबे समय तक अपने नैहर में रही थी सो मैं भी वहाँ रहता था । पिताजी उन दिनों अपने कॉलेज में ही रहा करते थे और हर आठवें दिन पड़ने वाली ‘अष्टमी’ या ‘परीब’ की छुट्टी पर अपनी ससुराल ही आ जाया करते थे । बहरहाल वे गंभीर दोपहरें ! उन दिनों को बहुत ज्यादा दिन नहीं हुए हैं बस आज से बीस – पच्चीस साल पहले की बात है बस ! मानव इतिहास में इतने साल बहुत मायने नहीं रखते लेकिन जिस तेज़ी से इन सालों में बदलाव आए हैं उसके हिसाब से लगता है कि वे दिन सौ साल पहले रहे होंगे । या नहीं तो कोई और दुनिया रही होगी जब सबके यहाँ टीवी नहीं आया था और पुरुषों का शाम को एक साथ बैठकर रेडियो सुनना जरूरी काम हुआ करता था । ठीक उन्हीं दिनों की दोपहर में कुछ दोपहरें ऐसी होती थी जो आम की खटास से ‘दाँत कोट’ (दाँत खट्टे) कर जाती ।
मौसियाँ या फिर हम बच्चे आम लाते फिर उन्हें छीलकर कद्दूकस किया जाता । कद्दूकस किए हुए आमों में नमक , बुकनी और फिर सब्जी में पड़ने वाला भुना हुआ मसाला मिलाया जाता फिर बनती ‘भुजबी’ या भुजनी । आज वह चटपटा स्वाद सोचकर ही मुँह में पानी आ रहा है । भुजबी में मिर्च ज्यादा डाली जाती थी सफ़ेद आम के लच्छों पर लाल लाल बुकनी का साम्राज्य ! मिर्च के तीखेपन से मुँह जलता रहता , सु सु की आवाज़ निकलती रहती , आँख से आँसू बहते रहते लेकिन उस चटपटे स्वाद में थोड़ा ज्यादा पा लेने के लिए धींगामुस्ती , मान-मनौव्वल , प्यार –दुलार और बेईमानी जारी रहती । भुजबी का ज्यादा बनना जरूरी था क्योंकि बहुत से लोग थे । हालाँकि पुरुष नहीं खाते थे बल्कि वे डांट ही लगा दिया करते थे । असल में एक बड़े घर में नाना के चार भाई अपने अपने परिवारों के साथ रहते थे । खाना चारों परिवारों का अलग बनता था और उस घर में सबके अपने अपने हिस्से के कमरे भी थे लेकिन रात हो या दिन जबतक कोई अनबन न चल रही हो तबतक लगता ही नहीं था कि कौन किस घर का हिस्सा है । आसपास के परिवारों का भी यही हाल था । और सबका आपस में मेलज़ोल अनबन से पहले तक बहुत घनिष्ठ रहता था । अनबन के बाद भी फिर से जुड़ जाना बड़ा सहज था । कोई भी अनबन लंबे समय तक चलते नहीं देखा मैंने । तो बात हो रही थी भुजबी की ! ज्यादा लोगों के लिए ज्यादा आम चाहिए थे सो रोज ऐसा आनंद नहीं मिल पाता था । लेकिन जब यह कर्मकांड होता था आनंद का अलग ही स्तर चलता था । बाद के वर्षों में मामियों के आने से उनके यहाँ के स्वाद आए । कोई दही डालने की हिमायती तो कोई दूध के ऊपर की मलाई ! असल मकसद स्वाद का चरम पा जाने का रहता था !
उन्हीं दिनों मुझे कई बार लगा कि स्वाद की विविधता के निर्माण और उसके हस्तांतरण में स्त्रियों की ही भूमिका होती है !
लेखक: आलोक रंजन
(सुप्रसिद्ध युवा रचनाकार, प्रसिद्ध यात्रावृतांत 'सियाहत' के लेखक)