इलाहाबाद और सिनेमा
स्कूल की दहलीज़ लाँघने और कॉलेज कैम्पस मे क़दम रखते ही मेरे जीवन मे जो सबसे बड़ा परिवर्तन आया , वह था बिंदास फ़िल्में देखने की आज़ादी ...
इसको आज़ादी कहने के पीछे भी एक वजह है ....
स्कूल मे पढ़ते समय आप हमेशा एक दायरे मे रहते हैं या फिर यह बोला जाये कि एक दायरा बना दिया जाता है आपके चारों ओर ... और उस दायरे को समय समय पर परिवार और टीचरों द्वारा जायज़ भी ठहराया जाता है ... कहाँ जाना है , कब जाना है , क्या करना है , कैसे करना है , क्या बनना है और क्या नही बनना है ....
श्री अंजनी पांडेय |
क्या नही करना है उसमें सबसे पहला नंबर था फ़िल्मों का ...फिल्में देखना मेरे समय मे बहुत अच्छा नहीं माना जाता था , ख़ासकर तब कि जब आप मध्यम वर्ग से ताल्लुक़ रखते हों ...तमाम तरह की बातें सुनने को मिलती थी अगर आपने फिल्म की बात की ....
फलाने का लड़का बहुत पिक्चर देखता है ...तुम उस समय पिक्चर हॉल के सामने क्या कर रहे थे ...आजकल के लड़कों को बस सिनेमा देखना है , पढ़ाई लिखाई से कोई मतलब नही ....
कुल मिलाकर फ़िल्मे देखना एक बुरी आदत का प्रतीक थी ...यहाँ तक की फ़िल्म देखने का ख़याल आना भी किसी अपराध से कम नही...
ख़ैर जब तक स्कूल की चारदीवारी मे रहे , पिक्चर हॉल से दूर ही रहे ... जैसे ही कॉलेज मे इंट्री हुई, मानो पिक्चर हॉल ख़ुद ही चलकर मेरे कॉलेज पहुँच गया हो ... फिर तो मानो एक सिलसिला सा बन गया हो फ़िल्मे देखने का ... मैं , और फ़िल्मे , और बेहिसाब फ़िल्मे ...
इलाहाबाद मे उन दिनों बहुत सिनेमाघर थे और हर तरह के ... तब मल्टीप्लेक्स नही होते थे ...बस सिंगल स्क्रीन टॉकीज और दिन के चार शो ...कुछ सस्ते कुछ महँगे कुछ अच्छे और शायद कुछ घटिया ... लेकिन हमें सबसे सुलभ थे ... गौतम -संगीत -दर्पण और पायल-झंकार ... मेरे यूइंग क्रिश्चियन कॉलेज के पास , दो मिनट मे पहुँचना , सबसे आगे वाली सीट और सिर्फ़ पाँच रुपये मे ... ख़ूब फ़िल्मे देंखी हैं इन पाँच टॉकीजों मे ...जब मन किया कॉलेज से निकलकर टॉकीज मे और फ़िल्मों के दौर ... पायल टॉकीज के सामने एक छोले चावल की दुकान भी थी...दो रूपयों मे इतना स्वादिष्ट छोला चावल मुझे दोबारा खाने को नही मिला ...
पैलेस मूवी हॉल, इलाहाबाद |
यूनिवर्सिटी पहुँचने पर एक और टॉकीज आया जीवन मे , लक्ष्मी टॉकीज ... लक्ष्मी टॉकीज ज़रूर किसी समाजवादी का होगा ... कोई भी पिक्चर हो एक ही दाम ... पहली सीट से लेकर आख़िरी सीट , सब एक जैसी , कहीं भी बैठ जाइये और टिकट चेकिंग वाला केवल टार्च मारता था ... ख़ैर लक्ष्मी टॉकीज पर जो मक्खन ब्रेड खाया कि मानो और कुछ नही स्वाद देगा जीवन भर ....
वह फ़िल्मे , वह समय , वह उम्र , सब कुछ रोमांच जैसा था ... हक़ीक़त से कहीं दूर जाने की इच्छा ...ख़्वाबों मे रहना और ख़्वाबों मे जीना ... और फ़िल्मों ने हमेशा ही उन ख़्वाबों मे भी रोमांच को बढ़ाया है ...
बहुत फ़िल्मे देखी जीवन के उन पांच सालों मे ...कुछ अच्छी फ़िल्मे , कुछ ख़राब फ़िल्मे , कुछ देखने लायक फ़िल्मे और कुछ ना देखने लायक फ़िल्मे ... बहुत कुछ सीखा जो सीखना चाहिये था ...वह भी सीखा जो नही सीखना चाहिये था ... वह दौर बेहतरीन था ,वह साथी लाजवाब थे और वह फ़िल्मे अनमोल थीं ....
आज जब पलट कर वापस देखता हूँ उन सिनेमाघरों की तरफ़ तो लगता है कि किसी विद्यालय से कम नहीं हैं वो ...बहुत कुछ सिखाया उन फ़िल्मों ने जो शायद किताबों मे नही सीख पाता ...डीडीएलजे का राज हो या शूल का समर प्रताप सिंह...सब थोड़ा थोड़ा से बसे हैं कहीं भीतर ...मोहब्बतें का शंकर नारायण अभी भी प्रभावित करता है ...हासिल का गौरीशंकर और रनविजय सिंह अभी भी जीवंत हैं ...सब कुछ ना कुछ सीख देकर गये...
मुझे लगता है कि सिनेमा देखना चाहिये और ख़ूब देखना चाहिये ... सोशल लर्निंग का इससे बेहतर माध्यम कोई नही हो सकता ...
मेरे जीवन के फ़लसफ़े मे फ़िल्मे बेशुमार हैं ...क्योंकि ...मेरे लिये फ़िल्मे देखना एक आज़ादी का प्रतीक हैं ....!
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@अंजनी कुमार पांडेय
पुराछात्र इलाहाबाद विश्वविद्यालय
लेखक भारतीय राजस्व सेवा २०१० बैच के अधिकारी हैं और वर्तमान मे प्रतिनियुक्ति पर विदेश मंत्रालय मे रीजनल पासपोर्ट ऑफिसर के पद पर सूरत मे तैनात हैं ।
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