नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Sunday, January 14, 2018

बरसात, कृषि और भावुकता से जुड़ा हुआ बिहारी लोकनृत्य जाट-जाटिन

जयकृष्ण मिश्र 'अमन' जी का शोधपरक आलेख: 

चित्र साभार: http://gktopic.blogspot.in

भारत परम्पराओं का देश है, सांस्कृतिक विविधताओं का देश। इसके विभिन्न प्रदेश न जाने कितनी सांस्कृतिक विशिष्टताओं को समेटे हुए हैं। प्रत्येक प्रदेश स्वयं में अनगिनत नृत्य, संगीत और कलाओं से समृद्ध है। ये कलाएं प्रतीक हैं हमारी गौरवशाली विरासत और परम्परा की। बिहार ऐसे ही कलात्मक समृद्ध प्रदेशों में से एक है।

बिहार प्रदेश है, किसानों का, ग्रामीण संस्कृति का। बिहार का ग्राम-लोक है; अनपढ़, तथाकथित गंवार, किन्तु भोले-भाले लोगों का। उनका, कि जिनके कार्य कठिन हैं लेकिन मन मिठास से भरा हुआ है। उनकी लोक-कलाएं भी ऐसी ही हैं; सहज, मधुर और सौम्य।

जाट-जाटिन, उत्तरी बिहार का अत्यन्त प्रसिद्ध और प्रचलित लोकनृत्य है। कोशी और मिथिला क्षेत्र में इसकी विशिष्ट ख्याति है। यह नृत्य एक किंवदन्ति कथा पर आधारित है। कहते हैं कि एक जाट और जाटिन थे। एक-दूसरे से अत्यन्त प्रेम करते थे; सच्चा, हार्दिक और आनुभूतिक। परन्तु तथाकथित सामाजिक सिद्धांतों ने उन्हें अलग कर दिया। वे एक-दूसरे से दूर होकर अत्यन्त विपरीत परिस्थितियों में; बेहद दुःख में, पीड़ा में, वंचना में किसी तरह जिए। इस नृत्य का मूल आधार उनके पवित्र प्रेम की स्मृति को प्रस्तुत करना तथा व्याख्यायित करना है। मूलतः जोड़े में किया जाने वाला यह नृत्य जाट-जाटिन के उसी रूहानी प्रेम की कलात्मक प्रस्तुति है, उन्हें श्रद्धांजलि है।

प्रारम्भ में तो यह नृत्य इस प्रेम की कलात्मक प्रस्तुति मात्र ही था, परन्तु धीरे-धीरे उसका दायरा बढ़ता गया। प्रेमानुभूति के साथ ही यह सामाजिक समस्याओं और लौकिक घटनाओं से भी जुड़ता गया। सूखा, बाढ़, गरीबी, प्रेम, दुःख, पति-पत्नी/प्रेमी-प्रेमिका की आपसी बातचीत, तू-तू-मैं-मैं, मान-मनौव्वल आदि सामाजिक परिस्थितियां और प्राकृतिक आपदाएं इस नृत्य को विस्तार देतीं गईं। इस वैविध्य के कारण इस नृत्य के कई संस्करण भी विकसित हुए।

मूलतः नवयुवतियों और कम आयु की गृहणियों द्वारा जोड़े में किया जाने वाला यह नृत्य बरसात के मौसम में, आधी रात को, चाँद की रोशनी में किया जाता है। बरसात की रातों में लड़कियां किसी घर के बड़े से आँगन में इकट्ठी होती हैं। कुछ लड़कियां पुरुष वेश धारण कर जाट बनती हैं तो कुछ स्त्रीवेश में जाटनी। ग्रामीण वेश-भूषा धोती, गमछा, साड़ी पहने हुए नर्तक अपनी भूमिका को वास्तविक रूप के और ज़्यादा निकट लाने के प्रयास में कभी-कभी चेहरे पर मुखौटा भी लगाते हैं। फिर क्या.....! जोड़े बनाकर ये युवतियाँ, गले में ढोल लटकाकर आधी रात से सुबह तक नृत्य करती हैं। मानो चाँद-तारे सब ज़मीन पर ही उतर आये हों। जाट-जाटनी के इस मनोरम नृत्य को यकहा नृत्य भी कहते हैं।

इस नृत्य के साथ गाये जाने वाले गीत मूलतः बरसात पर आधारित होते हैं। नृत्य की शुरुआत में सबसे पहले यक्ष का आह्वान और बरसात की प्रार्थना  की जाती है। प्रेमी यक्ष बादलों पर सवार हो कर आएगा और फ़िर बरसात अपनी रिमझिम से न केवल खेत और फसलों को बल्कि किसान के मन को भी हरा-भरा कर देगी। इसके बाद वास्तविक नृत्य की शुरुआत होती है।

नृत्य की भंगिमाएं गीत के भावों के आधार पर निर्धारित की जाती हैं। सुकुमार शारीरिक गति के साथ होने वाली इसकी मुद्राएं सजीव और ऊर्जावान होती हैं। नृत्य करते समय प्रत्येक गति के दौरान शरीर चार कदम आगे और फ़िर चार कदम पीछे जाता है। ऐसा करते समय पैरों की चाल बहुत जटिल नहीं होती, बल्कि बाँहों और पैरों की चाल बेहद शान्तिप्रिय और ऊर्जावान होती हैं। इसकी लय में 6, 7 या 8 ताल होते हैं। जैसे:- दादरा, कहरवा, तीवता आदि! 

बरसात, कृषि और भावुकता से जुड़ा हुआ यह नृत्य न केवल उन वैज्ञानिक-संचार-साधनों से विहीन ग्राम बालिकाओं के मनोरंजन से जुड़ा हुआ है, बल्कि निज-विचार-प्रस्तुतीकरण और सामाजिक सन्दर्भों एवं समस्याओं के विषय में जागरूकता फैलाने वाला भी है। भूमण्डलीकरण, गांवों के शहरीकरण एवं तेज़ी से बदलती आधुनिकीकरण की हवा में यह नृत्य लुप्तप्राय हो गया था, पर संचार के साधनों एवं मानव के सांगीतिक प्रेम ने कमोबेश कुछ परिवर्तनों और नवीन संस्करणों के साथ इस नृत्य को पुनर्जीवित करने का अत्यन्त सुन्दर प्रयास किया।


आप हिंदी साहित्य के समर्पित अध्येता एवं नीर क्षीर विवेकी रचनाकार भी हैं. साहित्य के साथ-साथ अन्य सभी विभागों एवं विधाओं में लेखन.
 jaykrishnaaman@gmail.com 

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