नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Monday, July 20, 2020

#2 # विश्वविद्यालय के दिन: अर्चना मिश्रा




#विश्वविद्यालय के दिन

                                        अर्चना मिश्रा

हां जी, तो विश्वविद्यालय में प्रवेश की प्रक्रिया पूरी होने के बाद अब बारी थी अध्ययन की । मैंने विश्वविद्यालय जाना प्रारंभ कर दिया। कक्षाएं चलनी शुरू हो चुकी थीं और हम अपनी पूरी लगन और उत्साह के साथ शिक्षा ग्रहण करने की प्रक्रिया में लीन हो गए थे, क्योंकि अभी विश्वविद्यालय जाने का नया नया जोश था ऐसा लगता था कि जैसे , विश्वविद्यालय में प्रवेश करते ही हमें बहुत बड़ा विद्वान और सर्वज्ञ बना दिया जाएगा।

थ्योरी की कक्षाओं से अधिक जिज्ञासा और प्रतीक्षा प्रायोगिक कक्षाओं की थी क्योंकि मेरा विषय मनोविज्ञान था । जिज्ञासा इस बात की थी कि मनोविज्ञान विषय में प्रयोग किस प्रकार किया जाता है। जिज्ञासा का कारण यह था कि इंटरमीडिएट में हमारी केवल सैद्धांतिक कक्षाएं ही होती थीं , प्रायोगिक कक्षाएं नहीं होती थीं , प्रयोग को भी हमने केवल पढ़ा था , किसी भी प्रकार का प्रयोग किया नहीं था। शायद यही वजह थी कि मैं प्रयोग को लेकर अधिक जिज्ञासु थी। थार्नडाइक का सिद्धांत,डेकार्ते ने कहा था........ वगैरह-वगैरह। 

स्नातक के तीन वर्षों में ऐसे तो हमने लगभग 20-25 के आसपास  प्रयोग किए। डॉ सुषमा पाण्डेय मैडम नियमित रूप से अध्यापन कार्य के लिए आती थीं , हमें उनकी कक्षाओं का बेसब्री से इंतजार होता था और मैडम भी पूरी मेहनत और लगन से हमें विभिन्न प्रकार के विषय पर जानकारी देतीं थी,लेकिन मनोविज्ञान विषय में एक प्रयोग सबसे कठिन लगा।मुझे याद है एकबार डॉ अचलनंदिनी श्रीवास्तव मैडम के निर्देशन में एक प्रयोग हमने गोलघर में किया था जिसका शीर्षक था "प्रत्यक्षदर्शी गवाह की  सत्यता" , जिसके लिए हमें एकदम अनजान लोगों को,जो सड़क पर चल रहे थे उन्हें रोककर उनसे टाइम पूछ्ना था और फिर उस व्यक्ति से उस टाइम पूछने वाली लड़की के बारे में जानकारी हासिल करनी थी , जिससे संबंधित उससे छ सात प्रश्न पूछे जाते। यकीन मानिए उस समय  हमारे लिए बहुत बड़ा काम था किसी अपरिचित को रोकना क्योंकि ये उन दिनों की बात है..... ऐसे तो मैं बहुत संकोची स्वभाव की नहीं थी कार्यक्रम वगैरह में पूरी दिलचस्पी के साथ प्रतिभाग किया करती थी लेकिन फिर भी गोरखपुर का सबसे व्यस्ततम बाजार और वह भी पुरुष-सत्तात्मक समाज में,आप सोच सकते हैं कि क‌ई लोग ऐसे होते थे जो बताना ही नहीं चाहते थे यहां तक कि क‌ई महिलाओं ने भी कहा कि अभी समय नहीं है जबकि सारे जवाब उन्हें हां या ना में ही लगभग देने होते थे , खैर ... बहुत रोमांचक अनुभव था हमारे लिए ।


गोरखपुर विश्वविद्यालय का प्रवेशद्वार 
                                                   


डॉ बब्बन मिश्र सर की "व्यक्तित्व का मनोविज्ञान " विषय की कक्षा बहुत ही मनोरंजक ढंग से चलती थी ।उनका बिना किसी किताब या नोट के लगातार व्याख्यान देना और बीच बीच में ऐसे उदाहरण देना कि हम बोर नहीं होने पाएं आकर्षित करता था।

डॉ नरेन्द्र मणि त्रिपाठी सर की न्यूमेरिकल मनोविज्ञान की कक्षा में उनका उदहारण कैसा हो सकता है कोई सोच भी नहीं सकता था। "मान लीजिए नरेंदर मणि ने एक लौकी चुराई " इतना सुनते ही लगभग पूरी भरी हुई क्लास से हा हा हा की आवाज आने लगती थी । कोई सोच भी नहीं सकता था कि मीन,मीडीयन,मोड, रैंक आर्डर मेथड , संभाव्यता आदि का उदाहरण इस प्रकार भी  दिया जा सकता है। खैर ..वह उनका अध्यापन कार्य का तरीका था और संभव है कि अंकों के झोल झाल के दबाव को कम करने के उद्देश्य से ही ऐसा करते थे।

विश्वविद्यालय आते जाते समय रास्ते में कभी कभी ऐसी बात हो जाती थी कि हम पूरा दिन हंसते । हमारा विश्वविद्यालय आना जाना रिक्शे से ही होता था क्योंकि पापा को उस समय लड़कियों को साइकिल देना मंजूर नहीं था , हालांकि कक्षा छह से विश्वविद्यालय तक की समयावधि में जितना किराया हमने रिक्शे से आने जाने में खर्च किया है उतने पैसों में शायद  आज के जमाने के हिसाब से अगर जोड़ा जाए तो ऐक्टिवा खरीद ली गई होती। खैर....

एकदिन एक रिक्शे वाले से पूछा"भ‌इया विश्वविद्यालय चलेंगे?" हां जी मैं चलेंगे ही पूछती थी और आज भी किसी भी रिक्शे वाले को चलोगे नहीं कहती हूं ये शायद हमारे घर परिवार के दिए संस्कार ही हैं। हां तो,.... रिक्शे वाले ने कहा "बहिनी ई कहां बा?"मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की कि  विश्वविद्यालय कहां है,  तो रिक्शे वाले ने तपाक से कहा"इनवरसीटी जानीला बहिनी "। इतना सुनते ही हंसी छूट गई। 

 अपनी बेवकूफी पर अफसोस भी हुआ कि मैं तो इन्हें कम पढ़ा लिखा समझकर विश्वविद्यालय पूछ रही हूं लेकिन ये तो बहुत स्मार्ट हैं, विश्वविद्यालय नहीं पता है कि कहां है लेकिन इनवरसीटी कहां है यह पता है।भले ही वह यूनिवर्सिटी नहीं बोल पाते थे लेकिन पहुंचाते एक दम सही जगह थे। मतलब हमारा विश्वविद्यालय और उनके अनुसार इनवरसीटी ....।

घर लौटने के लिए एक दिन रिक्शे की तलाश में इधर-उधर देख ही रही थी कि एक रिक्शे वाले ने आकर पूछा "कहां जाना है?" मैंने अपने गंतव्य का नाम बताया तो कहने लगा "ई कहां है?" मैंने रास्ते को विस्तार से बताने के उद्देश्य से कहा कि ,"गीता वाटिका पता है? धर्मशाला पुल के नीचे से होकर जाना है ।"उसने कहा कि"हम गीता गार्डेन तक  ग‌इल बाटीं"। लड़कपन की बुद्धि थी मुझे हंसी भी आई और थोड़ा गुस्सा भी आया क्योंकि घर जाने की जल्दी हुआ करती थी । सुबह से शाम पौने पांच बजे तक की लगातार कक्षाओं के बाद बस यही चिंता रहती कि कितनी जल्दी घर पहुंचा जाए । सर्दी के मौसम में घर पहुंचने में अंधेरा हो जाता था और वह समय ऐसा था कि अंधेरा होने के पहले ही घर पहुंचना सही समझा जाता था वह भी एक लड़की के लिए, क्योंकि उस समय इतना आवागमन का साधन नहीं होता था केवल रिक्शा ही एक मात्र माध्यम था। मुझे याद है क‌ई बार अंधेरा होने के कारण मम्मी घर के चौराहे तक पहुंच जाया करती थीं मेरा प्रतीक्षा  करते हुए।

लिखती रहूं तो शायद विश्वविद्यालय के दिनों की यादों को संजोने के लिए पूरा क‌ई दिन लगातार लिखने के बाद भी समय कम पड़ जायेगा। लिहाजा धीरे धीरे , एक निश्चित अंतराल पर कलम के माध्यम से अभिव्यक्ति होती रहेगी।


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