नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Friday, March 3, 2017

"अभिनव, जिंदगी विकल्पों पर चलती है... रोहित पांडेय"

रोहित भैया 

अपने लोग, अपनी धरती और न जाने कितने अपनों के बीच सदा गुलजार और महकते रहने वाले हंसमुख और विद्रोही स्वभाव के विरोधाभास से युक्त पत्रकार, साहित्यकार रोहित पांडेय मेरी पहली और आखिरी मुलाकात के बीच भाई ही रहे। 

गोरखपुर और दिल्ली के बीच ही नहीं कई जगहों पर किडनी की गंभीर की समस्या से जूझ रहे रोहित भाई ने जब अंतिम सांस ली तो महज कुछ अपनों के बीच थे। आज वर्षों बाद उनको याद करने की एक खास वजह इस बहाने उन लोगों को जोड़ना भी है जिनके मन में रोहित भाई के लिए स्थान है। हम उनको केवल जन्मदिन या पुण्यतिथि के बीच दो दिनों में बीच नहीं बांध सकते बल्कि उनसे जुडे प्रसंग, संदर्भ निरंतर उनके पाठकों के मन में घर बना चुके है।

लेकिन ऐसा भी वक्त आया जब हफ्ते की बात लिखने वाले का महीनों तक किसी ने खोज खबर न ली हो। मिलने पर भौजी की चाय की दुकान से चाय पिलाने वाले और विश्वविद्यालय की खबर लेने वाले की दिल्ली में उनकी खबर लेेने वाला कोई नहीं था। आमतौर पर यहाँ मृत्यु के बाद बिना किसी गुण दोष का मूल्यांकन किए व्यक्ति को महान बनाने की परंपरा है। लेकिन रोहित भाई को आज उनकी अनुपस्थिति में उनसे सीधे संवाद न करने वाले भी यदि याद करते हैं, असहमति के बाद भी याद करते हैं तो आप उनके व्यक्तित्व को खारिज नहीं कर सकते। 

मेरी उनसे पहली मुलाकात जब हुई तो मैं एमए राजनीति विज्ञान प्रथम वर्ष का छात्र था जिसे राजनीति में कम साहित्य में अधिक दिलचस्पी थी। उनके और मेरे इंटरमीडिएट के शिक्षक और तत्कालीन जुबली कॉलेज के प्रिंसिपल डा.ओपी राय ने अपने आफिस में मिलवाया था। उन्होंने कहा रोहित ये मेरा शिष्य है और पत्रकारिता में आना चाहता है। उन्होंने मुझे एक नजर देखा और अपना मोबाइल नंबर दिया। गाहे बगाहे उनसे मुलाकात हो जाती और फोन पर बात भी। 

पत्रकारिता में रोहित भाई पढ़ाने आते थे सरल, सहज लेकिन कभी कभी हद दर्जे तक अक्खड़। हम दोनों की एक ही राशि है लेकिन मतभेद जबरदस्त। कई बार तो कक्षा में ही जोरदार बहस। लेकिन वह मतभेद के बाद भी असहमति का सम्मान जानते थे। हम सब जब छात्र थे तो कच्ची मिट्टी थे उन्होंने गढ़ा, वाद विवाद का मंच, लिखने का मंच, यही नहीं कई शिष्यों के रोजगार की सिफारिश भी की। उनके जीवन काल में भी उनके कई शिष्य मोटे वेतन पर नौकरी करते थे और लेकिन जब वह घोर अभाव से जूझ रहे थे तब भी उन्होंने कुछ नहीं कहा, कुछ नहीं किया। यह कम लोग जानते होंगे कि वह अपने जीवन काल में घोर आर्थिक तंगी से जूझे। वह अपने आखिरी दौर में जिस अखबार में काम करते थे उस अखबार ने उनको मृत्यु से कुछ माह पूर्व ही स्थाई कर्मचारी के तमगे से नवाजा था। दूसरों के लिए शोषण, अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने वाले वह स्वयं कई पत्रकारों की तरह शोषण का शिकार रहे। वह बस इसलिए काम करते रहे क्योंकि वह अपनी इच्छा से लिखते थे मन का लिखते और इसके लिए उनको रोक नहीं थी। मैंं जब भी गोरखपुर जाता था इनकी कक्षा में बैठता था। बीमारी के वक्त भी उन्होंने कक्षा ली, गजब का जुनून लेकिन वहां भी ठगे गए। विभाग ने उनके हजारों रुपए उनकी जरूरत पर नहीं दिया।

भइया को जनसत्ता के पूर्व संपादक प्रभाष जोशी को बहुत मानते थे। प्रभाष जी ने रोहित भाई के ऊपर अपनी पुस्तक में लगभग दो पेज भी लिखा है। प्रभाष जी के निधन की खबर सबसे पहले रोहित भाई ने ही दिया, वह उनके घर भी गए। वह कहते थे ये संपादक कभी बूढा नहीं हो सकता क्योंकि इसके चाहने वाले युवा बहुत हैं। रोहित भैया ने प्रभाष जी को शब्दश्रद्धांजलि भी दी।  

एक प्रसंग याद आ रहा है। दिल्ली के इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में आबिदा परवीन आई थी मैंने भइया से आग्रह किया चलिए इसे सुनने चलते हैं। शाम का वक्त था उनकी तबीयत ठीक नहीं थी, लेकिन विनोद नगर से हम दोनों चल दिए। प्रांगण खचाखच भरा था आबिदा ने गाना शुरू किया। पूरा माहौल सुफियाना। आबिदा ने छाप तिलक सब छीनी गा रही थी, तभी उन्हे घबराहट होने लगी। उन्होंने कहा- मन नहीं लग रहा है चलो। मैं जाना नहीं चाह रहा था क्योंकि आबिदा के सुर का अपना सम्मोहन है। लेकिन जब उन्होंने दोबारा कहा तो मैं निकल गया। पहली बार मुझे ऐसा लगा कि भइया को मृत्यु का आभास हो गया था। क्योंकि उन्होंने रास्ते में कहा बाबू, मुझे मृत्यु का भय नहीं लगता लेकिन परिवार के लिए मैं कुछ नहीं कर पाया कुछ भी नहीं। उनकी पलकें गीली थी। संयुक्त परिवार में उनके पीछे पत्नी, बेटी और बेटा अन्य लोग हैं। उनके बड़े भाईसाहब ने उनका अंतिम समय तक सहयोग किया। 

रोहित भाई की खासियत थी कि वह जिससे मिलते उसे याद रखते थे और वे लोग भी रोहित भाई को शिद्दत से याद रहते। दो साल पहले अंतरराष्ट्रीय पुस्तक मेला में प्रसिद्ध लेखक काशी नाथ सिंह मिले। बातचीत में मैंने उन्हे रोहित भाई के बारे में बताया, वह बहुत दुखी हुए उन्होंने कहा कि रोहित ने ही मेरी किताब 'रेहन पर रग्घू' के लिए पहला साक्षात्कार लिया था। यह रोहित भाई की अमिट छाप थी जो कई लोगों पर थी। मैं कई पत्रिकाएं उनको पढ़ने के लिए देता, साहित्य जगत पर चर्चा होती, लेकिन उनका स्वास्थ्य धीरे धीरे बिगड़ रहा था। परिवार के लोग पूरी तन्मयता से सेवा कर रहे थे। चार पांच दिन पर मैं भी उनसे मिल लेता था।



एक दिन इराक एंबेसी में एक कार्यक्रम कवर करने गया था उसी दौरान रोहित भाई के बड़े भाई का फोन आया कि उनकी तबीयत ज्यादा खराब है और मूलचंद अस्पताल में भर्ती हैं। मैं सीधे वहीं पहुंचा। वह बहुत तकलीफ में थे। ऐसी तकलीफ की देखने वाला सिहर उठे। वहां से उनको एम्स ले जाया गया। वहां उनकी तबीयत और भी खराब हो गई। मैं जब मिलने गया तो पहली बार मेरे मन में आया कि इस दुख से मृत्यु भली। उनसे मुलाकात के कुछ दिन बाद ही तीन मार्च की सुबह आठ बजे मित्र और सहपाठी रंजेश शाही, पूजा सिंह के कई मिस्ड कॉल फोन में देखा। पलट कर फोन किया तो मन गहरे दुख से भर गया। भइया का निधन रात लगभग ढाई बजे हो चुका था। मैं सीधे निगम बोध घाट पहुंचा। चिता जल रही थी, मन बैठ रहा था, उनकी बातें दिमाग में कौंध रही थी...!

अभिनव, जिंदगी विकल्पों पर चलती है। सफलता अपनी पूरी कीमत वसूलती है। प्रेम विवाह किए हो बेटा, बहुत कठिन है डगर। जियरा क का हाल बात कहते हुए मुस्कुराता चेहरा याद आता। 

चिता धीरे धीरे राख होती जा रही थी मुझे उनका आफिस, पत्रकारिता की कक्षा, भौजी की चाय और उनका गुस्सा। सब आंखों के सामने तैर रहा था। 

वरिष्ठ पत्रकार, दैनिक जागरण 
दिल्ली 

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