रात दो बजे मोबाइल की घंटी बजी तो एक बार तो बंद
कर दी। पर वह फिर बजी। दूसरी तरफ रवीन्द्र त्रिपाठी थे। एक दुखद खबर, इससे शुरू कर खबर दी की प्रभाषजी का निधन हो गया।
अरे! कहकर मोबाइल काट दिया। मेरा अरे सुनकर पत्नी जग गई। पूछा तो बताया। फिर नींद
कहां थी! आकर बाहर हाल में बैठ गए और मैंने त्रिपाठीजी को फिर फोन लगाया और पूछा, क्या क्रिकेट के भावावेश ने उनका समापन कर दिया।
उत्तर मिला, हां। यादों में भाई साहब छाते चले गए। उनके बारे
में अंतिम खबर क्रिकेट से जुड़ी थी तो याद आई छब्बीस नवंबर 1976 में उनसे पहली मुलाकात। पटना में जेपी के घर में।
कोलकाता से जबलपुर लौटते हुए पटना पड़ा तो मैं उतर पड़ा और कदमकुआं के उस प्रसिद्ध
घर में पहुंच गया। नौ-दस का समय होगा। भीड़ थी। प्रभाषजी ने नाम पूछा और फिर जेपी
से परिचय कराया। वे मेरे परिवार से परिचित थे। उसके बाद वे कुछ देर को गायब हो गए।
थोड़ी देर बाद बचे जेपी और मैं। काफी बातें हुईं। खाना खाया। इस बीच मेरी नजर उस
हाल के बाएं सिरे के कमरे में गई थी और मैंने देखा कि प्रभाषजी ट्रांजिस्टर सामने
रखे कामेंट्री सुन रहे थे। वे उसी में रमे रहे। उनसे पहली मुलाकात और उनके बारे
में अंतिम खबर विचित्र रूप से क्रिकेट से जुड़ी थी
जिसके वे दिवानावार आशिक थे। सचिन उनके लिए बड़ी हद तक आलोचना से परे थे और खेल के
मामले में वे अतिशय देशप्रेमी थे। इन दोनों की भूमिका उनके उस भावावेश में थी जो
दरअसल उनकी शायद सबसे बड़ी पूंजी भी थी।
कहीं पढ़ा था, शायद बच्चनजी की ‘मेरे विदेश प्रवास की डायरीज् में जहां वे गांधी
की मृत्यु के संबंध में कहते हैं कि कई बार मृत्यु बताती है कि जीवन कैसा जिया।
जिस भावावेश ने उनके प्राण हर लिए वही उन्हें प्राणवान और जीवंत रखे हुए था। वे एक
विकल भारतीय आत्मा थे। एक जिद्दी धुन उनके अंदर हमेशा बजती रहती थी। बीमारी हो या
और भी कोई विकट समस्या उनका जुनून उन्हें बेचैन और सक्रिय रखता था। प्रसंगवश ‘प्रभाष जोशी-60 नामक जो
पुस्तक उनकी षष्ठपूर्ति पर आई उसमें ‘जीज् यानी उनकी मां
लीलाबाई जोशी का, जो शायद अगले साल सौ वर्ष की हो जाएंगी, मालवी में लेख था। शुरू में ही वे कहती हैं, ‘जसो छुटपन में थी असो को असोज है अब भी। जरा सी
भी फरक नी आयो। बस! जिना काम की धुन लगी, उसके पूरो करकेज
छोड़ तो, भोत जिद्दी थे। म्हारे लगे है कि हना जिद्दीपन कई
कारण आज इत्तो बड़ो आदमी बन्यो है। भावना और उससे विभोर होकर ही वे जिये। अखबार का
काम हो, लिखना, बोलना, सुनना, देखना सब बहुत
उत्कंठित होता था। जनसत्ता जब थोड़ा शिथिल हुआ तो एक मीटिंग ली और बोले, भाई अब वो मजा नहीं आ रहा। दफ्तर आना-जाना जिस
हुमकते हुए होता था अब ऐसा नहीं हो रहा। गरज यह कि वे सब में उसी उछाल की वही लय
चाहते थे।
जनसत्ता काम करने की अद्भुत जगह हुआ करती थी। गजब
का दोस्ताना और खिलंदड़ापन। अनंत बहसें। और डेटलाइन आते-आते गजब की मुस्तैदी।
डेटलाइन गड़बड़ाने वाले व्यक्ति वैसे प्रभाषजी ही हुआ करते थे, जब-जब उनका लेख जाने वाला हो। लेकिन यह जो खुलापन
और अनौपचारिक माहौल था वह उन्हीं की देन थी। आप डेढ़-दो महीने छुट्टी मनाकर आइए।
जहां जाइए जनसत्ता के यश के चैन से मजे लूटिए और आकर मेज की गर्द झाड़कर काम में
लग जाइए। कोई लाबिंग, उठा-पटक, जोड़-तोड़ नहीं।
शुरू में उन्होंने कई महीने सबके साथ बैठकर खूब मेहनत की कि कैसा अखबार निकालना है, फिर जब निकला तो कहीं कोई हस्तक्षेप नहीं। मैगजीन
की मंगलेशजी जाने, न्यूजरूम की न्यूज एडीटर और चीफ-सब। लेकिन अपने
लिखने-पढ़ने-करने से उनकी उपस्थिति हमेशा बनी रहती थी। शाम या कभी देर रात डेस्क
पर एक राउंड। सबसे चुहल। हंसी-मजाक। वहां भी उनका मुख्य डेस्टीनेशन खेल डेस्क होती
जहां कुछ ज्यादा रुकते। काली स्याही से लिखी उनकी कापी बेहद साफ-सुथरी होती, बिना काटकूट की, जिसके
अंत में हमेशा शीर्षक रहता था। वे एक बैठक और एक उत्तेजना में लिखते थे। वे आगे
होकर नेतृत्व करने वाले संपादक थे। टोंका-टोकी वाले नहीं। खुद करके सिखाने वाले।
बजट के दिन अचानक आएंगे और कहेंगे, क्यों पंडित ‘गरीबों को झुनझुना, अमीरों
को पालनाज् कैसा रहेगा।
उनके सिखाने का तरीका यही था। वैसे जनसत्ता एक
ऐसा अखबार भी रहा है जिसमें जितनी तरह की गलतियां हो सकतीं वे होती रहती थीं।
कुछेक बार ही उनका धीरज टूटा, लेकिन काम करते हुए
खुद सीखो वाली बात कायम रही। एक बार लोग कम थे या कुछ काम ज्यादा था तो मैंने कहा
कि भाई साहब कैसे होगा! उन्होंने कहा, नायक साब, क्राइसिस में ही मेटल का पता चलता है। शायद
जनसत्ता के लोगों के मन में ये सब बातें सतत् रहती थीं इसलिए हमेशा संकटों में
जनसत्ता ज्यादा निखरकर आया। एक बार मैं एडिट पेज देख रहा था। प्रभाषजी का मुख्य
लेख था। उसमें दसेक लाइन ज्यादा थी। उनका अता-पता नहीं। मोबाइल का जमाना आया नहीं
था। घर में भी नहीं। अंतत: मैंने दस लाइनें काट दी। दूसरे दिन दफ्तर में घुसते ही
टकरा गए। दूर से ही हाथ के इशारे से कहा-काट दीं। मैंने कहा और क्या करता। बोले
ठीक जगह से काटीं। मतलब यह कि नाक से ऊपर पानी आने पर ही उन्होंने सख्ती की। दफ्तर
को उन्होंने अत्यंत लोकतांत्रिक रखा। इसका कुछ गलत असर भी पड़ा। सब बड़े वहां भाई साहब
थे इसलिए एक अजब भाई साहबवाद आ गया था। गलती हुई तो, अरे भाई
साहब! उन्होंने खूब स्वायत्तता दी जो कहीं-कहीं स्वेच्छाचारिता में भी बदल गई।
जनसत्ता के जरिए उन्होंने हिंदी पत्रकारिता की
रूढ़ि तोड़ी। उसे औपचारिक और सरकारी विज्ञप्ति की भाषा के खांचे से निकाला और
कलेवर बदला, उसमें गहरे सरोकार जोड़े उस सबका बखान बहुत और
सही होता है, लेकिन जिन लोगों को प्रजानीति की याद है वे जानते
होंगे कि वहां भी अलग पत्रकारिता थी और मुहावरा सबसे अलग था। खबर-दार, बेखबर जसे कालम और सधी रिपोर्टें। उम्दा टीम।
प्रभाषजी ने जनसत्ता में भी बिलकुल यही किया। प्रजानीति जनसत्ता का प्रस्थान बिंदु
था। इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप अब भाजपा और तब जनसंघ के प्रभाव में काफी रहा है। जेपी
के आंदोलन में जनसंघ का वर्चस्व था। तब प्रजानीति में खुद प्रभाषजी की एक दो
रिपोर्टे लंबे समय तक खटकती रहीं। लेकिन प्रभाषजी इस मायने में विलक्षण थे कि
उन्हें समझ में आ जाए कि मामला अब ठीक नहीं तो उसके विरोध में खड़े होने में देर
नहीं लगाते थे। बाबरी ध्वंस के बाद उन्होंने संघ परिवार की जसी खबर ली और जसी लेते
रहे वैसा तो पहले कभी किसी ने किया ही नहीं।
प्रभाषजी जिस तरह अखबार के कामकाज से धीरे-धीरे
दूर होते गए उससे कोफ्त होती थी। उसका असर जनसत्ता पर भी पड़ा। पर दूसरी दृष्टि से
देखें तो उन्होंने अखबार को जमाया और दूसरे ऐसे कार्यो में लगे जो बेहद जरूरी थे।
हर तरह के सामाजिक सवाल उन्हें मथते थे। इसलिए ऐसे हर जरूरी मंच पर वे खड़े दिखते।
घूमते-फिरते अपने सरोकारों की अलख जगाते। प्रभाषजी आजादी के बाद युवा हुए और
सक्रिय हुए पर उनकी जड़ें आजादी के पूर्व के समय में थी। वही सरोकार, वही निष्ठा। पत्रकारिता-आंदोलन में कोई फर्क
नहीं। इस सबके बीच संगीत,
क्रिकेट और आत्मीयों के लिए समय भी खूब निकालते।
गुणाकर मूले की शोकसभा में वे देर से पहुंचे। हिंदी भवन में उस दिन मृत्यु से एक
हफ्ते पहले आखिरी मुलाकात थी। पीछे पड़े कि एक गाना सुनाना है। मंगलेशजी, जोसफ गाथिया और मैं और वे उनकी वहीं बाहर खड़ी
गाड़ी में बैठे और पंद्रह मिनट तक संगीत सुनते रहे।
उनकी पत्रकारिता और विचारों पर कई जगह एतराज हो
सकता है पर उन्हें विरोध की कोई परवाह भी नहीं थी। जो सही लगता उसे बेलाग, दो-टूक कहते। बहत्तर वर्ष उनके बेहद सक्रिय और
सार्थक थे। सचिन जिता नहीं पाए तो यह भी क्रिकेट की भव्य अनिश्चितता का ही कमाल
है। और जीवन तो सब खेलों से बड़ा खेल है उसकी अनिश्चितताएं भी भव्यतर हैं।
प्रभाषजी का एकाएक जाना भी इसी में शुमार है। सदमा तो लगा पर ऐसे सच्चे, संजीदा, सजग, संवेदनशील और आत्मीय व्यक्ति के जाने पर शोक की इजाजत नहीं होनी चाहिए। उषा भाभी, संदीप, सोनल और सोपान ने जो
अमूल्य खोया वह हिंदी समाज,
पत्रकारिता, जनांदोलनों
और उनके असंख्य प्रशंसकों ने भी खोया है। छाया की तरह साथ रहने वाले अपने सचिव
महादेव देसाई की मृत्यु पर गांधीजी ने उनकी पत्नी को आगा खां पैलेस से चिट्ठी लिखी
थी- ‘शोक की इजाजत नहीं। मैं तुमसे ज्यादा विधवा हो
गया हूं।
(लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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