[प्रभाष जोशी जी एक साथ ही समकालीन समय में विशिष्ट रहे, सर्वसुलभ रहे और संपर्क में आने-वाले हर छोटे -बड़े से एक आत्मीय रिश्ता भी निर्मित कर सके ..तो फिर देखो ना सबके पास उनके लिए 'अपने शब्द' हैं. रोहित जी लिखते-लिखते कलम रख देते हैं ; भाव-विह्वल हो जाते हैं... यह जोशी जी की शक्ति थी एक दूसरे के सरोकार में एकाकार होने की....महामना को मेरी विनम्र श्रद्धांजली...श्रीश पाठक ]
प्रभाष जोशी |
जोशी जी नहीं रहे। मोहित ने यही बताया था। मुझे समझने में समय नहीं लगा। भला मेरे घर में किसी और जोशी के रहने, नहीं रहने से क्या फर्क पड़ता। मुझे अपनी गलती का अहसास हो गया. रात के 2.45 और सुबह 6 बजे के फोन को नजरंदाज करके सो गया था। प्रभाष जी नहीं रहे। यकीन नहीं हो पा रहा था खुद को। अभी तो कितनी बातें उनसे हुई थी और अबकी पत्रकारिता दिवस (30 मई 2010) को तो उन्हें गोरखपुर से पत्रकारिता के आंतरिक भष्टाचार की वर्ष गांठ मनानी थी। प्रभाष जी और श्री अच्युतानंदन मिश्र भी इस बात से सहमत थे कि ऐसे भ्रष्टाचार से हमला दिल्ली में बैठकर नहीं बोला जा सकता। इसके लिए छोटे शहर से ही आवाज उठनी चाहिए। और पत्रकारों की अगर मजबूरियां हैं तो पाठकों को मंच बनाकर आगे आना होगा।
प्रभाष जी को गोरखपुर ने निराश नहीं किया। वहां पाठक मंच भी बना। और तो और अपने अजय श्रीवास्तव ने प्रभाष जी के राय साहब (राम बहादुर राय) के प्रथम प्रवक्ता में खबर भी छाप दी कि- स्पेस बिकता है खरीदोगे क्या? प्रभाष जी को इसकी आहट थी कि पैसा लेकर खबर बेचने का धंधा इस बार के चुनाव में पूरी निर्लज्जता के साथ किया जाएगा। इसीलिए जब वह अपने भाषणों में चुनाव पूर्व ही इस धनकरम पर चिंता जाहिर करना शुरु कर दिया था। हमारे माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल ने पत्रकारिता के पुरखों को याद करने का एक अनूठा अभियान चलाया। गणेश शंकर विद्यार्थी को कानपुर में याद करने के बाद बनारस में पराड़कर जी को याद करना था। पराड़कर के संदर्भ में आज की पत्रकारिता को देखना था। जांच करना था। नागरी प्रचारिणी हाल में प्रभाष जी, नामवर जी मौजूद थे। प्रभाष जी बोलने के लिए खड़े हुए अभी रौ में आते कि उनके माथे से पसीना टपकने लगा। मुश्किल से दस मिनट बोले और यह कहकर बैठ गए कि एड़ी में बहुत दर्द हो रहा है। मुझसे कहा कि पूरा कार्यक्रम देखकर आओ।
प्रभाष जी ने बीएचयू का आतिथ्य स्वीकार किया था इसलिए कार्यक्रम से सीधे बीएचयू गेस्ट हाउस पहुंचे। वहां प्रबंधक दक्षिण भारत के सज्जन थे। उन्होंने प्रभाष जी का लिखा हुआ दिल्ली फैक्स कराने का इंतजाम करने के लिए हामी भर दी। जब मैं बीएचयू पहुंचा तो तीन पेज लिखा जा चुका था। यह कागद कारे नहीं था। यह तहलका के लिए था। सुगढ़ लिखावट में दर्द की छटपटाहट नहीं दिख रही थी। बल्कि जैसे एड़ी से निकल कर हाथ के जरिए कलम में समा गया था और वह हर लाइन में निचुर रहा था। मैं उनके कमरे तक पहुंचा तो मेरा मौन व्रत पूरा हो चुका था। मैंने कहा इतना दर्द है और आप लिख रहे हैं। प्रभाष जी ने कहा पंडित रोहित कुमार लिखने से दर्द हल्का होता है। फिर तहलका की डेड लाइन थी। फिर उन्होने उनके बाद हुए भाषणों का सार तत्व पूछा। किसने क्या कहा इसके बजाय उन्होंने कहा कि निष्कर्ष क्या निकला। मैं चुप था। उन्होने कहा कि मौनी बाबा यह समय बोलने का है चुप रहने का नहीं। मैनें कहा कि वैसे तो मैं बहुत बोलता हूं मगर विद्वानों-बुजुर्गों की सभा में चुप रहता हूं। प्रभाष जी हंसे और बोले- अब इस देश को विद्वान और बुजुर्ग नहीं नौजवान चाहिए । देखना आने वाले लोकसभा में जनता के एक मात्र हथियार वोट को भी बाजार में खड़ा कर दिया जाएगा। जो जमानत नहीं बचा सकेगा उस उम्मीदवार को हमारे अखबार प्रचंड बहुमत दिलाएंगे।
एड़ी का दर्द जब तब उभरता उसकी चिंता छोड़ देश के भविष्य और मीडिया की विश्वसनीयता की चिंता उन्हे खाए जा रही थी। उन्हे आराम करने के लिए कहा तो अंगूठे को तर्जनी अंगुली पर मारते हुए पूछे वो है क्या? मैं जेब से मोबाइल निकाला उनके घर मिलाया। प्रभाष जी ने तहलका के दफ्तर में कालम साफ-साफ पहुंच जाने की पुष्टि की। फिर अपने दर्द पर थोड़ी चर्चा। एड़ी में दर्द की वजह ब्लड शुगर बताया और बड़ी पेन निकालकर अपने शरीर में घुसाया। फिर हमारे खाने पीने की चिंता करने लगे। आश्वस्त हुए तो कहा दर्द जाता नहीं यार। लगभग छटपटाहट की स्थिति में थे प्रभाष जी। उनके बगल वाला कमरा नामवर सिंह जी का था मगर नामवर जी अपने गांव किसी की मृत्यु पर शोक में शामिल होने गए थे। मेरे साथ आशुतोष सिंह और मैं एड़ी में जेल आदि लगाकर थोड़ी राहत देने की कोशिश की। बात-बात में खिलाड़ियों की चोट की भी चर्चा उभर आई। प्रभाष जी अब चौके छक्के लगाने लगे। सीके नायडू से लेकर सचिन तेंदुलकर की चोटें और उनके मैच पर पड़े प्रभाव की बातें। अंतहीन बातें। रात को दस बज गए प्रभाष जी अपने मुख्य विषय पर आ गए। पैसे लेकर खबरें बेचने के विरुद्ध अभियान उनका अभीष्ट था। उन्हे भरोसा था कि माखन लाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय इस पर कुछ करेगी। उन्होंने कहा कि अच्युता बाबू ये सब गहराई से सोचते हैं। फिर उन्होंने कहा कि पाठक मंच बनावाओ। उसमें गोष्ठियां प्रदर्शनियां करवाओ। पता नहीं क्या सोच कर कहा, लेकिन पंडित तुम तो वर्किंग जर्नलिस्ट हो। उन्होने रास्ता भी सुझाया। मैं सुनकर आश्चर्य में पड़ गया कि अभी एक दिन पहले यही रास्ता तो गुरु जी ने बताया था गुरु जी अर्थात प्रभाष जी के अच्युता बाबू। प्रभाष जी नहीं रहे। गुरु जी हैं। मैं हूं। वह त्रिकोण टूट गया। अब और नहीं लिख सकता। पता नहीं किस ओर से प्रभाष जी आएं और कहें पंडित आपको तो डाक्टर ने आराम करने के लिए कहा है और मेरे कंधो को हल्के से दबा कर लिखने का स्वीच ऑफ कर दें।
रोहित पांडेय- पत्रकार गोरखपुर |
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