उड़ते उम्मीदों के
सफेद हंस फिर लोरियाँ गाएंगे
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एक 'क्यों' अटका है मुझमें माँ
तुम्हारे जाने के बाद.
ये सवाल तुम्हारी याद पर
जब तब भारी पड़ जाता है,
और आँसू ढूलकने नहीं देता
पर फूट-फूटकर पिघलता है अंतर्मन.
एक 'क्या' भी निश्चित नहीं हो सका है माँ
जानना है जाकर इस जन्म के परे
जो सचमुच होते हैं गर बंधन जनम जनम के.
कि, कुछ तो रहा होगा ऐसा जघन्य मेरे हिस्से,
जिसने ज़ेहन में तुम्हारी सूरत जमाने से पहले ही
तुम्हें कह दिया हो जाने को निर्मम.
अब बस एक 'कब' के सहारे हूँ माँ
जब जान और रूह के सारे तार
तुमतक दस्तक देंगे और फिर
तुम्हारे झीने आँचल के तले से
झाँक सकूंगा नीला आसमान, उड़ते उम्मीदों के
सफेद हंस फिर लोरियाँ गाएंगे, टिमटिम.
श्रीश प्रखर
#श्रीशउवाच
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