संदीप नाईक |
एक भविष्य जो अँधेरे में उग रहा है
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कितना
दुर्भाग्यशाली होता है वो गांव
जहां ना
नीम हो, ना बबूल, ना महुआ
जहां
पानी ना बरसे और सूखी हो मक्का
खेतो में
छोड़ना पड़े पशु कि खा जाए फसलें
ये समय
ही नही दर्ज हो पन्नों पर तो !
कितना
दुर्भाग्यशाली होता है वो कस्बा
जहां पशु
चरनोई की जगह टाकीज उग आए
जहां खेल
के मैदान में ठेके की दुकान तन जाए
जहां
पेड़ों के बदले ऊंची इमारतें निकल आये
ये दर्ज
तो हो पन्नों पर काले हर्फ़ों में !
कितना दुर्भाग्यशाली
होता है वो शहर
जहां
प्रेम की पींगों पर पहरेदार मौजूद हो
लड़कियां
खौफ से ही मर जाये घरों में अकेले
घरों की
खिड़कियों से झांकती घुटनभरी आवाजें
निकलें
ही ना और दर्ज ना हो सफ़ों पर !
महानगरों
के दुर्भाग्य का क्या कहना अब
क्या नही
हो रहा वहां इंसानियत के गला घोंटने से लेकर
सबकुछ हर
क्षण घट रहा है और खुशी खुशी शामिल है
लोग, भीड़, सत्ता, मीडिया
और सारे पैरोकार खेल में
सब दर्ज
किया जा रहा कि यह सब याद रहें इतिहास को!
© संदीप
नाईक
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कुछ व्यक्तित्व ऐसे होते हैं विरले, जिनके लिए भूमिकाएँ बौनी पड़ जाती हैं. परिचय की कोई कोशिश औपचारिक हो महत्वहीन हो जाती है. आज के साप्ताहिक चयन के कवि हैं आदरणीय संदीप नाईक जी. आपकी कलम सच का दामन पकड़े बस चलना जानती है. निर्भय अक्षर कभी गीत, कभी कविता, कभी आलेख आदि अन्यान्य रीति से प्रस्फुट होते रहते हैं. आप ड्राइंगरूम कलमकार नहीं हैं, यायावरी डग भरते भरते सच लिखते रहते हैं.
आज की कविता बेहद ही यथार्थपरक कविता है.
बदलाव केवल शहर या कस्बे में ही नहीं हों रहे. बदलाव की बयार हर ठीहे तक जाती है, चाहे वह गाँव की चौपाल हो, कस्बे की दुकान हो, शहर की खिड़कियाँ हों और क्यों न हो महानगरों के प्लास्टिक से करतब ही. चिंता बदलाव से नहीं है, बदलाव तो बेहतरी के रस्ते भी खोलते हैं.पर उस अजीब बदलावों का क्या जो अमानवीय हैं, असामाजिक हैं और विडंबना अधिक इसकी भी है कि वे दर्ज भी नहीं किये जा रहे आधिकारिक इतिहास के पन्नों में. इतिहास के पन्नों में दर्ज करने भर की भी जो होती ईमानदारी तो आने वाली पीढ़ी उन्हें दुहराने को अभिशप्त न होती. ऐसे में उगना तो तय है पर पीढियों का यह उगना अँधेरे में उगना है. अँधेरे में उग रहे भविष्य से यह आस लगाना भी असंभव जान पड़ता है कि वह भविष्य प्रकाश से अपना नाता जोड़ना भी चाहेगा अथवा नहीं.
वज़हें चाहे जो भी हों, किन्तु यदि गाँव हो और उसके हरे पेड़ इतने न बढ़ पा रहे हों कि अपने छाये के आगोश में गाँव को ले सकें, फसलें अपनी जवानी में आने से इंकार कर दें और पशुओं को बेतरतीब छोड़ दिया गया हो खेतों में निराश होकर; और अगर यह सभी कुछ दर्ज भी न हो बहुसंख्यक के मन पर और इतिहास के बयानों में, फिर निश्चित ही यह एक दुर्भाग्यशाली समय है.
कस्बे में जब जबरन ठुंसे जाएँ टाकीज चारागाहों के ऊपर, खेल के मैदानों में उगते जाएँ दुकान ठेके के, पेड़ों की कतारें तब्दील हो जाएँ कंक्रीट की मीनारों में और फिर भी इतिहास तैयार न हो इन्हें अक्षर देने के लिए तो यकीनन यह दुर्भाग्यपूर्ण है.
प्यार की पींगें जहाँ मोहताज हों और आधी आबादी की आवाज गले के भीतर ही चिंघाड़े और खिड़कियाँ भी जहाँ मुंह मोड़ ले, ऐसे शहर का इतिहास में जिक्र न होना इक त्रासदी से कम नहीं.
दुर्भाग्य के ग्रहण से पगे हैं महानगर, जहाँ बस मानवता की लाश पर खेले जाते हैं खेल दिन-रात. अजीब है कि यह भी कुछ जानबूझकर दर्ज न किया जाय आधिकारिक इतिहास में.
कवि किन्तु निराश नहीं हैं वरन वह ताकीद करते हैं कि फिर भी यह दुर्भाग्य समूचे दर्ज हो रहे हैं. इतिहास के आधिकारिक वर्णनों में न सही, किन्तु सतत समाज के अहर्निश मन में दर्ज तो अवश्य हो रहा है यह. आधिकारिक इतिहासकारों को किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए. इस कविता को यकीनन एक चेतावनी के रूप में लेना चाहिए और इस परिप्रेक्ष्य में यह एक आवश्यक रचना है.
डॉ. श्रीश |
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