वसुंधरा पाण्डेय |
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“कहाँ लोहा
कहाँ तेल
कहाँ दिल की छुई-मुई
हारमोनियम धड़कनें
फिर भी
दिल तो दिल है
आज नहीं कल
इस जन्म नहीं,
अगले में
पा ही लेगा मंजिलें...”
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“इश्क और कविता में
उम्र की तरह
रूप-रंग
एक गलतफहमी है...”
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“हे मेरे स्त्रीत्व
मेरे सृष्टि-कर्म
नवसृजन के मेरे अभिमान
आनंद की सार्थकता
सार्थकता के आनंद
मेरी मुक्ति मेरे ज्ञान
तुझे लिखते समय
जितनी भी
अनिर्वचनीय पुलक है
सब संजो लेना चाहती हूँ...!”
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“शब्द उदधि की
इस गोताखोरी में
तुम एकमात्र
आश्वस्ति हो मेरी
मुझे तो सांस लेने की भी फुर्सत नहीं
एक के बाद एक अभियान
जो मिलता है समेट लाता हूँ
तेरे चरणों में ढेर लगाता हूँ
अब तू जान तेरा काम जाने
कहाँ किस शिला को बिठाना है
कहाँ क्या उगाना है
किस मानिक को कहाँ छुपाना है
फुर्सत तो तेरे पास भी नहीं
मुझे देखने की
फिर भी कनखियों से
हम देख ही लेते हैं इक-दूजे को
कैसी तृप्ति...!
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कवि की हारमोनियम धड़कनें थकने वाली नहीं है.....!!!
कैसा प्रेम अपेक्षित है, कवि को स्पष्ट है...!
गहरा प्रेम, कहीं से भी छिछला प्रेम नहीं....प्रेम के आगे उपसर्ग भी छिछला नहीं
जँचता...! जरा ठहरो, तुरत ही ना तौलने लगो, इश्क़ औ कविता को गहरे से पकड़ो....ऊपर
तो दुनियावी परत है..! कई कवितायें हैं जिनमें बड़ी ही बखूबी प्रेम के मायने और
अनंत अभिलाषा सूक्ष्मतम रूप से व्यक्त हुए हैं। प्रेम, प्रेम को पाकर
इठलाता भी है, अधिकार भी जताता है और अपने प्रेम समर्पण को औरों से अधिक गहनतम भी
बताता है...स्वाभाविक ही है:
प्रेम में भी भटकना आसान है। दिशाएँ अनंत हैं.......लक्ष्य के लिए
नियत दिशा अनिवार्य है...उपयुक्त दिशा की कसौटी है जीवंत प्रेम की
उपलब्धता......!!! बंधु; यहाँ साधन-साध्य-सिद्धान्त में अंतर ना कर बैठना, डूब जाओगे...!
प्रेम तो शुद्ध प्रेम होता है, वह परिणाम की परवाह क्यो करेगा...!
प्रेमी को बस प्रेम से मतलब....! प्रेम की समस्त पीड़ा और समस्त संतोष भी तो प्रेम
ही है....! बूंद ये तो नहीं सोचती कि वो कुछ न रह जाएगी समद में.....!
कविताओं के के भीतर प्रेम में सहज समर्पण का निरूपण हुआ है। समर्पण
बिना तो प्रेम अपने असल रूप में आने ही नहीं पाता। बड़े अभागे हैं वे लोग जो बिन
समर्पण प्यार की आग में कूद पड़े और नाहक ही झूलसते रहे। आह, उन्हें तो प्रेम के
सहज रूप को महसूसना भी नसीब ना हुआ।
कविताओं में प्रेम की सूक्ष्मतम, गहनतम एवं पवित्रतम अनुभूतियों की
अभिव्यक्ति हुई है। इन कविताओं में प्रेम के अनन्य भावों महसूसने और उन्हें सँजोने
की चेष्टा है। किन्तु इस सँजोने में भी पवित्रता है क्योंकि उसमें भावों की
उदात्तता है, स्वार्थ लेश मात्र भी नहीं !
प्रेम में मायने नहीं रखती औरों की व्याख्या या संशय या प्रश्न
ही.....बस वक़्त वक़्त की बात है..समाना तो प्रियतम तुममे ही है....! कवि ने दिखा
दिया है कि इस आपा-धापी के युग में भी अगाध प्रेम संभव है। यथार्थ उसे यूं ही नही
कुचल सकता। जीवन संघर्ष में प्रेम अवकाश उतना ही तृप्तिदायक..... जितना भी मिल
जाये चीजों को जुटाने और उन्हें सजाने के दरम्यान......!
अपनी इयत्ता को समझना ही मुश्किल, फिर इयत्ता के महत्वपूर्ण आयाम को
समझना और भी मुश्किल...और ये देखिये ....संजोना उसे नहीं है जो जाना-सीखा है अपितु
संजोना है साझा करने के सुख को .....!. ‘हे मेरे स्त्रीत्व’ एक बेहद
महत्वपूर्ण कविता है । इसके प्रति-एक शब्द पर व्याख्यायें हो सकती है। इतनी
मितव्ययिता से इतने वृहद आयामों वाली कविता के कवि को प्रणाम करता हूँ।
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प्रेम में सम-विषम जैसा कुछ नही होता...प्रेम में समान प्रकृति का होना कतई आवश्यक नही....ज्यादातर प्रेम में वही साथ होतें हैं जिनका सहज रूप से साथ होना दिखाई नही देता...एक अलग तरह का चश्मा लगा होता है प्रेम में...उस चश्मे से दिल ने जो मंजीले बनाई है वो बेहद साफ नजर आती है...मंजिलें जो दिल के करीब हैं उनके लिए उत्साह कभी कम नही होता...और फिर कोई हद दिल के रास्ते मे नही आती...अंततः दिल अपनी मंजिलें पा ही लेता है.... कवि ने जन्म-जन्मांतर तक साथ चलने वाले अटूट प्रेम का सहजतापूर्ण निरूपण किया है।
प्रेम कहाँ देखता है रंग-रूप-उम्र....प्रेम हर सांचे से खुद को आज़ाद रखता है...तभी तो खुद के विराट दर्शन के मोह-पाश में बांध कर भी बंधा हुआ नही महसूस कराता.....और कविता तो ख़ुद किसी बंधन को स्वीकार नही करती....एक ही कविता के न जाने कितने अर्थ निकाले जाएं.....कवि ने साधारण तर्क के माध्यम से ही प्रेम के बेहद असाधारण दर्शन का परिचय कराया है
प्रेम में अपना कुछ नही होता...जो कुछ भी हमारा है....हमारे शब्द-हमारे अर्थ-हमारी उत्पत्ति-हमारा पतन-हमारी उपलब्धि-हमारी कोई भी ताकत या कमजोरी...हमारा सब कुछ उसी का हो जाता है....जब हम सब प्रेम पर न्यौछावर कर देते हैं....तब फिर प्रेम हमें धीरे-धीरे सब लौटाता है....और तब हम अपनी ही चीजों का सार्थक आनंद प्राप्त करते हैं...
कवि के समर्पण के शब्द उसके आनंद की सार्थकता बयाँ करने में सफल हुए हैं....
प्रेम तो एक सहज प्रक्रिया है...वो बस हो जाती है...हम प्रेम में कुछ नही कर रहे होते बस संसाधन जुटा लेते हैं और प्रेम की सहज बनाई गई दुनियां का अंग बन जातें हैं....प्रेम को बहुत समय नही चाहिए थोड़ा सा पलक झपकने भर में भी प्रेम उतने ही अनिवार्य रूप से उपस्थित रहता है....पंक्तियों में कवि प्रेम की उपस्थिति को लेकर पूरी तरह आश्वस्त होने का भाव दर्शा रहा है.....
प्रस्तुत कविताओं में कवि ने प्रेम और उसकी सहजता की हर अनिवार्य दशा तक अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है...!!!
(वीरेश्वर तिवारी) |
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