किसी अज़ीम शायर ने क्या खूब कहा है-
मीलों तक पसरी दिल्ली का यह भी एक तवारुफ़ है,
कुछ अफसानों की कब्रें हैं कुछ कब्रों के अफसाने हैं.
ग्यारह बार उजड़ी और हर बार और उम्दा बसी देहली अपने आप में बोलती तारीख है. शहर की शाम औ सहर बस अव्वलों से नहीं बनती, यह मुकम्मल होती है आम से. इसी दिल्ली के हवाले से लोकप्रिय ब्लॉगर श्री शचीन्द्र आर्य नवोत्पल के लिए नियमित स्तम्भ की शुरुआत कर रहे हैं, उन्वान रखा है, "दिल्ली की किताब ".
बेहद करीने से एहसास तह कर रखते जाते हैं, शचीन्द्र. इनके ब्लॉग पर वे सभी तहें छुई जा सकती हैं. अनुभव के रंगीन फाहे वे उड़ेलते जाते हैं, हर्फ़ मुस्कुराते जाते हैं. (डॉ. श्रीश)
किश्त (एक)
कमरा
शचीन्द्र आर्य |
मैंने तय किया है, मैं दिल्ली पर लिखूंगा.
हो सकता है, किसी को लगने लगे, यह दिल्ली नहीं उनके शहर की कहानी है,
तब उन्हें लगने दूंगा.
शायद शहर ऐसे ही होते हैं. वह सबको अपने जैसे लगने लगते हैं. जिन जगहों से छूट कर हम सब इन शहरों की अनजान गलियों में गुम हो जाते हैं,
वहाँ कोई ऐसा मिलना सुख से भर देता है, वह मेरे गाँव का है. यह शहर के साथ इस गाँव की तलाश भी है. वह गुम नहीं हुआ है. ओझल हो गया है. जो ओझल हो गया है, दिल वहीं अटका रह गया है. अटक जाने में कोई गम नहीं है. एक ख़ुशी है, इस उलझन भरी दुनिया में कहीं तो हम वापस जाना चाहते हैं. यह इच्छा ही हमें इस जगह से बचा ले जाती है.
***
1.
यह
किसी सपनों के पेड़ की कहानी नहीं है. यह
हमारे घर की कहानी है. घर. जब हम नहीं थे,
घर तब भी था. नहीं होंगे, घर तब भी होगा. इसी घर से शुरू कर रहा हूँ. यह घर ही हमारी पहली दिल्ली है. सबसे पहली याद में याद
आता है, गद्दों के पहाड़ पर चढ़कर वहाँ बीचे हुए पलंग पर धम्म से
कूद जाना. हम बहुत छोटे रहे होंगे. शायद
इतने छोटे कि कूदने के बाद भी वह लगातार कई सालों तक कूदने लायक जगह बनी रही.
यही हमारी दिल्ली की सबसे पहली यादों में से एक याद है. यहीं से, इस पलंग वाले कमरे से हमारी दिल्ली शुरू होती
है.
हमने
चाचा की शादियों की तस्वीरें देखी हैं. बारात
के बैलगाड़ी पर जाने के किस्से सुने हैं. तीन-तीन दिन बरात के रुके रहने का इत्मिनान उनकी आँखों में देखा है. पर पापा-मम्मी की शादी की कोई कहानी बाबा से हमें नहीं
सुनी. हमारी स्मृतियों में सबसे पहले मम्मी-पापा की वह तस्वीर है, जिसमें दोनों शादी के बाद बहराइच
के किसी नामी फोटो स्टूडियो गए हैं. दादी भी वहीँ सामने कहीं
खड़ी होंगी. फोटोग्राफ़र ने दो तस्वीरें उतारी हैं. एक रंगीन. एक सादी. जिसे सब आज
'ब्लैक एंड वाइट' कहते हैं. बाद में किसी ने कहा रंगीन वाली उसने ख़ुद रंगी है. मेरा
दिल उसी में कहीं अरझा रह गया है.
2.
हम
तब पैदा नहीं हुए हैं. या इतने छोटे हैं कि
स्मृति में वह तस्वीर ही हमारी पहली याद है. नीचे वाले कमरे का
दरवाज़ा खोल कर मम्मी अन्दर आ रही हैं. पापा ने उस दरवाज़े को अपने
हाथों से खोलते हुए मम्मी की तस्वीर खींची है. कमरा बहुत बड़ा
नहीं है. एक बड़ी सी खिड़की है. एक दिवार
में चुनी हुई अलमारी है, जिस पर लकड़ी का दरवाज़ा है. उसी अलमारी के एक ताखे की दिवार पर पापा ने बाबा-दादी
की फ़ोटो चिपका रखी है. दो तीन और फ़ोटो हैं. पर अब याद नहीं कौन-कौन उनमें रहे होंगे. शायद एक आजी की तस्वीर रही होगी और एक उनके बड़के मामा की फोटो होगी.
मम्मी
के दिल्ली और दिल्ली में भी इस कमरे में आने से पहले यह लकड़ी के दरवाज़े वाली अलमारी
ही पापा का सारा सामान समेटे हुए रखती. सामान
रहा ही कितना होगा. एक स्टोव, दो चार जोड़ी
कपड़े, और थोड़ी सी दाल, चावल, एक डिब्बे में चीनी. एक चायपत्ती की डिबिया. सब सामन अलमारी में. अलमारी में ताला लगाया. सब बंद.
बचपन
में जितना पीछे जा सकता था, जाकर यही ला पाया हूँ.
खैर. उसी खिड़की के पास एक नल था, जिससे नगर निगम का पानी रोज़ सुबह पांच बजे अलारम की तरह सही वक़्त पर आ जाया
करता. टंकी में पानी भरने की ज़रूरत नहीं थी. वहीँ एक बन्दर छाप लोहे की बाल्टी टंगी रहती. शाम पानी
चार बजे आएगा, उससे बर्तन धुल जायेंगे. कमरे में जो एक खिड़की थी वह आदमकद थी. सामने आम का पेड़
और बहुत बाद में पता चला उसी के बगल के पेड़ में जो फूल आते हैं, उन्हें गुलमोहर कहते हैं. अमलतास खिड़की के बायीं तरफ
झुकने पर दिखाई देता. उसी पर एक पर्दा और परदे के पार गर्मी से
राहत देता डेजर्ट कूलर. मौसम चाहे कोई भी रहे. खिड़की से कूलर हटाने की कोशिश
भी नहीं की जाती.
3.
यह
एक कमरे का हमारा घर. जिसे कब घर बोलना शुरू
किया, याद नहीं. पर एक दिन रहा होगा,
हमारे इस दुनिया में आने से पहले जब पापा मम्मी को यहाँ लाये होंगे.
शादी के बाद सपनों के घर. उन उम्रों का रुमान मम्मी
पापा ने साथ मिलकर बुनना शुरू किया होगा. सारी व्यवस्थाएं इसी
चारदीवारी में कर के इसे मम्मी के लिए बनाया होगा. कुछ बर्तन
लाये होंगे. वो बाबा वाला डिब्बा, आटे का कनस्तर, बत्ती वाला स्टोव. सब तभी दाखिल हुए होंगे. कुछ पापा अपने मन से लायें होंगे. कुछ को मम्मी ने कहा
होगा. साथ में चली आई होंगी दोनों के हिस्सों की खाली जगहें.
जिसे हमारे आने की आहटों ने भरा होगा. भर गए होंगे
उन सपनों से पहले पहल आने की दस्तक से. उसमें गूंजती होंगी आने
वाले कल की आवाजें, शरारतें, इतराना,
इठलाना. जैसे इतने सालों से थमा है, इस शहर में एक कमरे का अस्तित्व. हमारी बनावट बुनावट
में इसकी हिस्सेदारी सबसे जादा है.
पापा
दिनभर नीचे ऑफिस में रहते. वहीँ से बिन बताये पहाड़ी
धीरज चले जाते. वहाँ कभी कोई प्रेस रही होगी. जब-जब पापा वहाँ जाते मम्मी अकेले रह जातीं. उनके अकेलेपन में इंतज़ार की घड़ियाँ और पतीली में चुरती दाल रही होगी.
सायकिल बहुत बाद में आई. पैदल ही जाना और पैदल
ही आना. आर्य प्रतिनिधि सभा का 'आर्य जगत'
वहीं छपता. उसकी कॉपी देखना पापा के जिम्मे था.
चश्मा तभी लग जाना चाहिए था. बहुत दिन बाद,
हमारे सामने लगा. पड़ोस में कौन रहा होगा?
कमरा इतना बड़ा नहीं था कि जान पहचान में ज्यादा वक़्त लगने वाला था.
उससे पहचान ही उन दिनों की ऊब से बचने का एक ही रास्ता थी. कोई नहीं. अकेले रहना शायद तभी से मम्मी ने सीखना शुरू
कर दिया होगा. यह उनका इन दिनों का पूर्वाभ्यास था.
***
(क्रमशः)
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