नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Thursday, May 18, 2017

#28#साप्ताहिक चयन: 'मुझे लगता है जल्द ही प्रेम कर लेना चाहिए '/ नीतेश मिश्र

नीतेश मिश्र
प्रेम...! 
पीढियां गुजरती हैं, लोग आते-जाते हैं. प्रेम बना रहता है । इसके बस कायदे उलट-पुलट होते रहते हैं पर ये बना रहता है पुरी शिद्दत के साथ।  नीतेश मिश्र जी की कविता एक अल्हड़ अलहदे अंदाज की कविता है। नीतेश जी सतना, मध्य प्रदेश में  पंचायतीराज विभाग में सरकारी सेवारत हैं  पर फाइलों की ढेर से दबा हुआ कोमल मन अभी जीवित है  , जो कविता के रूप में  सजीवता के निशान  हर रोज़ अंकित करता जान पड़ता  है । इस कविता पर अपनी सजग और सहज टीप  कर रहे हैं  विविध आयामों से समाज, समय और कविता को समझने वाले  डॉ.कमलाकांत यादव जी. 

आइये गुजरते हैं इस मोहक और सजीव रचनाकर्म से ...!

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साभार:सद्गुरु.org 
मुझे लगता है जल्द ही प्रेम कर लेना चाहिए

मुझे लगता है जल्द ही प्रेम कर लेना चाहिए
उम्र बढ़ती जा रही है तक़रीबन तीस के आसपास
स्त्रियां कहती है बुढ़ापे का मिला प्रेम
प्रेम नहीं सांत्वना का रूपक है
मैं जब इस बारे में सोचता हूँ
तब लगता है मेरे पैर जिम्मेदारियों से इतने भारी हैं कि
चार कदम चलना एक युग पार करना है
और मेरी मान्यता है कि प्रेम (में)इतना लंबा इंतजार अब
किसी भी प्रेम के लिए दुरूह है

एक स्त्री ने मुझे प्रेम का फूल दिया था
जिसे मैंने इतिहास की किताबों में छुपा कर रख दिया था
जो उसके भारीपन से टूट टूट कर बिखर गया था
और मेरी माँ ने उसे बुहार कर बहार फेंक दिया
उस वाकये के बाद उस स्त्री ने लगभग झुंझलाते हुए कहा था
शायद अगर तुम उसे प्रेम की किताबों में रखते तो
वह बच जाता और आज हम तुम मिल पाते
इतिहास प्रेम का बचपना नहीं बुढ़ापा लिखता है
हम तुम अभी खिल रहे थे

लगभग नौकरी की तरह प्रेम को यहाँ वहाँ तलाशता रहा
नौकरी भला कहाँ किसी को मुकम्मल मिली है
वैसे ही प्रेम भी मुझे नहीं मिला
इधर कुछ अच्छी स्त्रियों के प्रस्ताव आये हैं
लेकिन उनकी संशयी आँखों को देख डर घर जाता है
संशय और प्रेम भला कहाँ साथ रह पाते है
काश की कोई अब बिना शंशयी आँखों के साथ आये
जिसे मैं प्रेम कविता सुना पाऊँ और प्रेम कर बैठूँ
फ़िलहाल नौकरी भी अच्छी नहीं मिली है
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नीतेश मिश्रा*

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आदरणीय गौरव कबीर जी,
सादर अभिवादन !

                        कविताएं पढ़ना और उन पर देर तक सोचना अकेलेपन से लड़कर बाहर निकलने का सबसे बेहतरीन जरिया है । मैं जिस पीढ़ी का हूँ वह बेहद संक्रमण काल की है । हालांकि, यह बहुत सरलीकृत बयान है । समय जब ठहरा हुआ नहीं है तो सभी पीढ़ियाँ संक्रमण की शिकार (?) होती होंगी ! नवोत्पल के दो सदस्य सुशील और श्रीश जहां खड़े होकर सोचते जीते हैं मेरी भी जमीन उसी के आस-पास है । ब्लॉग के बाकियों को पढ़ता हूँ, व्यक्तिगत परिचय न होते हुए भी बहुत अपनापन लगता है । नीतेश मिश्रा की कविता पढ़कर देर तक अपने बारे में सोचा अपने परिवेश की समग्रता के साथ ।

            भारत विविधताओं से भरा देश है । कुछ लोग इतनी तेज और ऊंची जीवन शैली के साथ जीते हैं कि अमेरिका,यूरोप के तथाकथित संभ्रांत लोगों के मन में भी हीन भावना आ जाए और कुछ आज भी तेल के डिब्बे को काटकर बनाए गए लोटे में पानी भरकर सड़क के किनारे बबूल की छाया में शौच करने जाते हैं । मेरी पीढ़ी दोनों से प्यार करती है । दोनों रूपों में स्वयं को ढाल लेती है । यह कविता मेरी पीढ़ी के प्यार की कविता है ।उसके मद्धिम जीवन और मुस्कुराहट की कविता है । 90 के बाद की पीढ़ी ऑटो चलाते/बैठे हुए लीन होती है ,मुसकुराती है बस एक सनम चाहिए आशिक़ी के लिए- जैसे गाने पर । और जीती है इस सोच के साथ -

कि ज़िन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेंचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोज़ी कमाने में
कोई फर्क नहीं है ।(धूमिल)

किसानी जीवन की सहजता,बाजार और भूमंडलीकरण की दस्तक और फिर तकनीक और पूंजी के सहारे उसका वर्चस्व । इसे मेरी पीढ़ी ने देखा,भोगा और जिया है । लोकतन्त्र की कल्पना स्वतंत्रा के बिना संभव नहीं है । स्वतन्त्रता इतिहास की जकड़नों से मुक्त होकर ही हासिल की जा सकती है ।लेकिन इस पवित्र भारत भूमि की जातीय विशिष्टता है कि उसके नागरिक अन्तरिक्ष में जाने वाले विमान पर भी नारियल फोड़कर तिलक लगाते हैं ।इसलिए एक ऐसी स्थिति का सामना करना विलक्षण नहीं है जब –


एक स्त्री ने मुझे प्रेम का फूल दिया था
जिसे मैंने इतिहास की किताबों में छुपा कर रख दिया था
जो उसके भारीपन से टूट टूट कर बिखर गया था
और मेरी माँ ने उसे बुहार कर बहार फेंक दिया ।

इतिहास,परंपरा,भारतीयता और संस्कार का बोझ बहुत जबर होता है । उठने नहीं देता ।लेकिन प्रेमिकाएँ बहुत तेज (चालू नहीं) होती थीं/हैं ।(अगर अभी उस उम्र की किसी रूपसी का विवाह न हुआ हो।जिसकी संभावना बहुत क्षीण है !!) –


उस वाकये के बाद उस स्त्री ने लगभग झुंझलाते हुए कहा था
शायद अगर तुम उसे प्रेम की किताबों में रखते तो
वह बच जाता और आज हम तुम मिल पाते
इतिहास प्रेम का बचपना नहीं बुढ़ापा लिखता है
हम तुम अभी खिल रहे थे ।

प्रेमिकाएँ कितनी अच्छी होती थीं ।प्रेम करती थीं । ज्यादा स्वतंत्र होती थीं प्रेम करने के लिए इसलिए ऐसा कह जाती थीं ।और,माएँ ,वो तो हमेशा से बूढ़ी रहती आई हैं । संतानों के अरमानों पर  झाड़ू ऐसे मारती हैं जैसे उन्हे किसी ने प्रेम करने से वंचित कर दिया हो जिसके कारण वे  उसकी तासीर और स्वाद से वञ्चित हों ।समझ जाती माँ और सम्हाल ली जाती प्रेमिका लेकिन बड़ी समस्या यह थी कि –

लगभग नौकरी की तरह प्रेम को यहाँ वहाँ तलाशता रहा
नौकरी भला कहाँ किसी को मुकम्मल मिली है
वैसे ही प्रेम भी मुझे नहीं मिला ।

सन् 47 का दुष्प्रभाव है ।उस मोटी किताब के द्वारा फैलाया गया भ्रम है ।जिसने गरिमामय जीवन का कीड़ा दिमाग में डाला ।रोजगार चाहिए ।बिना नौकरी के सामाजिक पहचान अधूरी है । (आज की पीढ़ी उस किताब को पढ़ती ही नहीं /जरूरत नहीं है ।) इसलिए यह संकट है –


तब लगता है मेरे पैर जिम्मेदारियों से इतने भारी हैं कि
चार कदम चलना एक युग पार करना है ।

घुट-घुट कर जीने की आदत डाल लेने वाले अपने भीतर एक जीवटता को सिरीज लेते हैं । जो उन्हे मरने से रोकती है ।आत्महत्या नहीं करने देती । रोमांस से भर देती है ।कुछ अंकुरित होता है भीतर –


मुझे लगता है जल्द ही प्रेम कर लेना चाहिए
उम्र बढ़ती जा रही है तक़रीबन तीस के आसपास ।

यह रोमांस हास्य भी उत्पन्न करता है स्वयं पर । संशय भी -

स्त्रियां कहती है बुढ़ापे का मिला प्रेम
प्रेम नहीं सांत्वना का रूपक है ।

ध्यान रहे कि इस तरह के चेतावनी वाले वाक्य देने वाली स्त्रियाँ माँ और दादी के जमाने की हैं ।और, प्रेम और विवाह करने वाली डोनाल्ड ट्रम्प के ! इसलिए यह बात त्रिशंकू के मन में आना लाजिमी है कि –


कुछ अच्छी स्त्रियों के प्रस्ताव आये हैं
लेकिन उनकी संशयी आँखों को देख डर घर जाता है
संशय और प्रेम भला कहाँ साथ रह पाते है ।

लेकिन समस्या यह नहीं है ।बल्कि ये है कि –


काश की कोई अब बिना शंशयी आँखों के साथ आये
जिसे मैं प्रेम कविता सुना पाऊँ और प्रेम कर बैठु
फ़िलहाल नौकरी भी अच्छी नहीं मिली है ।

ऐसे में सबसे बेहतर सलाह (स्वयं) को यही दी जा सकती है –


और मेरी मान्यता है कि प्रेम (में)इतना लंबा इंतजार अब
किसी भी प्रेम के लिए दुरूह है ।

बस इतना ही । लेख के आरंभ में धूमिल की कविता उद्धृत किया था । अंत भी धूमिल की ही कुछ पंक्तियों से -

जो जिन्दगी को किताब से नापता है
जो असलियत और अनुभव के बीच
खून के किसी कमजा़त मौके पर कायर है
वह बड़ी आसानी से कह सकता है
कि यार! तू मोची नहीं ,शायर है ।






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