नीतेश मिश्र |
पीढियां गुजरती हैं, लोग आते-जाते हैं. प्रेम बना रहता है । इसके बस कायदे उलट-पुलट होते रहते हैं पर ये बना रहता है पुरी शिद्दत के साथ। नीतेश मिश्र जी की कविता एक अल्हड़ अलहदे अंदाज की कविता है। नीतेश जी सतना, मध्य प्रदेश में पंचायतीराज विभाग में सरकारी सेवारत हैं पर फाइलों की ढेर से दबा हुआ कोमल मन अभी जीवित है , जो कविता के रूप में सजीवता के निशान हर रोज़ अंकित करता जान पड़ता है । इस कविता पर अपनी सजग और सहज टीप कर रहे हैं विविध आयामों से समाज, समय और कविता को समझने वाले डॉ.कमलाकांत यादव जी.
आइये गुजरते हैं इस मोहक और सजीव रचनाकर्म से ...!
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साभार:सद्गुरु.org |
मुझे लगता है जल्द ही प्रेम कर लेना चाहिए
मुझे लगता है जल्द ही प्रेम कर लेना चाहिए
उम्र बढ़ती जा रही है तक़रीबन तीस के आसपास
स्त्रियां कहती है बुढ़ापे का मिला प्रेम
प्रेम नहीं सांत्वना का रूपक है
मैं जब इस बारे में सोचता हूँ
तब लगता है मेरे पैर जिम्मेदारियों से इतने भारी हैं कि
चार कदम चलना एक युग पार करना है
और मेरी मान्यता है कि प्रेम (में)इतना लंबा इंतजार अब
किसी भी प्रेम के लिए दुरूह है
उम्र बढ़ती जा रही है तक़रीबन तीस के आसपास
स्त्रियां कहती है बुढ़ापे का मिला प्रेम
प्रेम नहीं सांत्वना का रूपक है
मैं जब इस बारे में सोचता हूँ
तब लगता है मेरे पैर जिम्मेदारियों से इतने भारी हैं कि
चार कदम चलना एक युग पार करना है
और मेरी मान्यता है कि प्रेम (में)इतना लंबा इंतजार अब
किसी भी प्रेम के लिए दुरूह है
एक स्त्री ने मुझे प्रेम का फूल दिया था
जिसे मैंने इतिहास की किताबों में छुपा कर रख दिया था
जो उसके भारीपन से टूट टूट कर बिखर गया था
और मेरी माँ ने उसे बुहार कर बहार फेंक दिया
उस वाकये के बाद उस स्त्री ने लगभग झुंझलाते हुए कहा था
शायद अगर तुम उसे प्रेम की किताबों में रखते तो
वह बच जाता और आज हम तुम मिल पाते
इतिहास प्रेम का बचपना नहीं बुढ़ापा लिखता है
हम तुम अभी खिल रहे थे
लगभग नौकरी की तरह प्रेम को यहाँ वहाँ तलाशता रहा
नौकरी भला कहाँ किसी को मुकम्मल मिली है
वैसे ही प्रेम भी मुझे नहीं मिला
इधर कुछ अच्छी स्त्रियों के प्रस्ताव आये हैं
लेकिन उनकी संशयी आँखों को देख डर घर जाता है
संशय और प्रेम भला कहाँ साथ रह पाते है
काश की कोई अब बिना शंशयी आँखों के साथ आये
जिसे मैं प्रेम कविता सुना पाऊँ और प्रेम कर बैठूँ
फ़िलहाल नौकरी भी अच्छी नहीं मिली है
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*नीतेश मिश्रा*
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आदरणीय
गौरव कबीर जी,
सादर
अभिवादन !
कविताएं पढ़ना और उन
पर देर तक सोचना अकेलेपन से लड़कर बाहर निकलने का सबसे बेहतरीन जरिया है । मैं जिस पीढ़ी का हूँ
वह बेहद संक्रमण काल की है । हालांकि, यह
बहुत सरलीकृत बयान है । समय जब ठहरा हुआ नहीं है तो सभी पीढ़ियाँ संक्रमण की शिकार (?) होती होंगी ! नवोत्पल के दो सदस्य
सुशील और श्रीश जहां खड़े होकर सोचते जीते हैं मेरी भी जमीन उसी के आस-पास है । ब्लॉग के बाकियों को पढ़ता हूँ, व्यक्तिगत परिचय न होते हुए भी बहुत
अपनापन लगता है । नीतेश मिश्रा की कविता पढ़कर देर तक अपने बारे में सोचा –अपने परिवेश
की समग्रता के साथ ।
भारत विविधताओं से भरा देश है । कुछ लोग इतनी तेज और ऊंची जीवन शैली के साथ जीते हैं कि अमेरिका,यूरोप के तथाकथित संभ्रांत लोगों के मन में भी हीन भावना आ जाए और कुछ आज भी
तेल के डिब्बे को काटकर बनाए गए लोटे में पानी भरकर सड़क के किनारे बबूल की
छाया में शौच करने जाते हैं । मेरी पीढ़ी दोनों से प्यार करती है । दोनों रूपों में
स्वयं को ढाल लेती है । यह कविता मेरी पीढ़ी के प्यार की कविता है ।उसके मद्धिम
जीवन और मुस्कुराहट की कविता है । 90 के बाद की पीढ़ी ऑटो चलाते/बैठे हुए लीन होती है ,मुसकुराती है –बस एक
सनम चाहिए आशिक़ी के लिए- जैसे गाने पर । और जीती है इस सोच के साथ -
कि ज़िन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेंचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोज़ी कमाने में
कोई फर्क नहीं है ।(धूमिल)
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेंचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोज़ी कमाने में
कोई फर्क नहीं है ।(धूमिल)
एक स्त्री ने मुझे प्रेम का फूल दिया था
जिसे मैंने इतिहास की किताबों में छुपा कर रख दिया था
जो उसके भारीपन से टूट टूट कर बिखर गया था
और मेरी माँ ने उसे बुहार कर बहार फेंक दिया ।
जिसे मैंने इतिहास की किताबों में छुपा कर रख दिया था
जो उसके भारीपन से टूट टूट कर बिखर गया था
और मेरी माँ ने उसे बुहार कर बहार फेंक दिया ।
उस वाकये के बाद उस स्त्री ने लगभग झुंझलाते हुए कहा था
शायद अगर तुम उसे प्रेम की किताबों में रखते तो
वह बच जाता और आज हम तुम मिल पाते
इतिहास प्रेम का बचपना नहीं बुढ़ापा लिखता है
हम तुम अभी खिल रहे थे ।
शायद अगर तुम उसे प्रेम की किताबों में रखते तो
वह बच जाता और आज हम तुम मिल पाते
इतिहास प्रेम का बचपना नहीं बुढ़ापा लिखता है
हम तुम अभी खिल रहे थे ।
प्रेमिकाएँ कितनी अच्छी होती थीं ।प्रेम करती थीं । ज्यादा स्वतंत्र होती थीं प्रेम करने के लिए इसलिए ऐसा कह जाती थीं ।और,माएँ ,वो तो हमेशा से बूढ़ी रहती आई हैं । संतानों के अरमानों पर झाड़ू ऐसे मारती हैं जैसे उन्हे किसी ने प्रेम करने से वंचित कर दिया हो जिसके कारण वे उसकी तासीर और स्वाद से वञ्चित हों ।समझ जाती माँ और सम्हाल ली जाती प्रेमिका लेकिन बड़ी समस्या यह थी कि –
लगभग नौकरी की तरह प्रेम को यहाँ वहाँ तलाशता रहा
नौकरी भला कहाँ किसी को मुकम्मल मिली है
वैसे ही प्रेम भी मुझे नहीं मिला ।
नौकरी भला कहाँ किसी को मुकम्मल मिली है
वैसे ही प्रेम भी मुझे नहीं मिला ।
तब लगता है मेरे पैर जिम्मेदारियों से इतने भारी हैं कि
चार कदम चलना एक युग पार करना है ।
चार कदम चलना एक युग पार करना है ।
मुझे लगता है जल्द ही प्रेम कर लेना चाहिए
उम्र बढ़ती जा रही है तक़रीबन तीस के आसपास ।
उम्र बढ़ती जा रही है तक़रीबन तीस के आसपास ।
यह रोमांस हास्य भी उत्पन्न करता है स्वयं पर । संशय भी -
स्त्रियां कहती है बुढ़ापे का मिला प्रेम
प्रेम नहीं सांत्वना का रूपक है ।
कुछ अच्छी स्त्रियों के प्रस्ताव आये हैं
लेकिन उनकी संशयी आँखों को देख डर घर जाता है
संशय और प्रेम भला कहाँ साथ रह पाते है ।
लेकिन उनकी संशयी आँखों को देख डर घर जाता है
संशय और प्रेम भला कहाँ साथ रह पाते है ।
काश की कोई अब बिना शंशयी आँखों के साथ आये
जिसे मैं प्रेम कविता सुना पाऊँ और प्रेम कर बैठु
फ़िलहाल नौकरी भी अच्छी नहीं मिली है ।
जिसे मैं प्रेम कविता सुना पाऊँ और प्रेम कर बैठु
फ़िलहाल नौकरी भी अच्छी नहीं मिली है ।
और मेरी मान्यता है कि प्रेम (में)इतना लंबा इंतजार अब
किसी भी प्रेम के लिए दुरूह है ।
किसी भी प्रेम के लिए दुरूह है ।
जो जिन्दगी को किताब से नापता है
जो असलियत और अनुभव के बीच
खून के किसी कमजा़त मौके पर कायर है
वह बड़ी आसानी से कह सकता है
कि यार! तू मोची नहीं ,शायर है ।
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