जब क्षण क्षण के हर रेशे में वह सुन्दरतम सनातन महसूस होने लग जाए, हरी दूब के नोकों में, नयी पत्तियों के स्पर्श में जब महसूस होने लगे परम और हवा की हर रौं में जब मचलने लगे मन उस शाश्वत लय में फिर मौन का महात्म्य खुलने लग जाता है. कवि सुवरन की खोज करते करते अक्षर के पार के परम को पाने लग जाता है और अभिव्यक्ति मौन का स्वाद चखने लग जाती है. इन क्षणों में भी कुछ शब्द छूट पड़ते हैं, उन्हीं शब्दों से बटोर बुनी है आज की कविता-'मुझे मौन होना है'.
हिमांशु पाण्डेय जी |
कविवर हिमांशु पाण्डेय जी की यह कविता एक अनुपम उपलब्धि है अपने कथ्य व प्रतीति के लिए. हिमांशु जी बेहद सक्रिय रचनाकार हैं और 'स्वान्तः सुखाय संप्रदाय' से सम्बद्ध हैं. पुराने प्रतिबद्ध ब्लॉगर हैं, नवोत्पल के पुराने साथी हैं. 'सच्चा शरणं' आपका बेहद प्रसिद्द ब्लॉग है, जिसके प्रत्येक प्रविष्टि एक शानदार निष्पत्ति है.
अध्यात्म की हर मनोरम बूँद का अमृत बस वे बटोर पाते हैं जिनका हृदयतल अहं की जलकुम्भी से अटा पड़ा नहीं होता, उसमें सदा ही स्वाति के रसपान की इषा बनी रहती है. ऐसे में कविमना आदरणीय श्याम जुनेजा की टिप्पणी से भली और क्या बात हो सकती है. श्याम जी का औपचारिक परिचय कराना एक भूल है सो इससे बच रहा हूँ.
आइये मौन को निरखें...!
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मुझे मौन होना है
साभार: ओपलस्ट्रीम |
मुझे मौन होना है
तुम्हारे रूठने से नहीं,
तुम्हारे मचलने से नहीं,
अन्तर के कम्पनों से
सात्विक अनुराग के स्पन्दनों से ।
मेरा यह मौन
तुम्हारी पुण्यशाली वाक्-ज्योत्सना को
पीने का उपक्रम है,
स्वयं को अनन्त जीवन के भव्य प्रकाश में
लीन करने की आस है,
सुधि में प्रति-क्षण तल्लीन करने वाली
आसव-गंध है ।
अपने स्पन्दनों के संजीवन से
मेरे प्राणों में अमरत्व भरो,
अपने स्पन्दनों से निःसृत मौन से ही
छंदों और ऋचाओं से अलभ्य
’उसे’ ढूँढ़ने की लीक दो,
और मिट्टी की गंध-सा यह मौन
साकार कर दो चेतना में
कि युगों की जमी हुई काई हट जाय,
दृश्य हो शुद्ध चैतन्य.
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आज फिर श्रीश ने “राग बावरा” छेड़ ही दिया... मेरी कमजोरियों को उनसे बेहतर कोई नहीं जानता... ऐसी मित्रता के यही तो सद्गुण हैं.. कह रहे हैं ‘मुझे मौन होना है” पर कोई टिप्पणी लिखूं ... इस कविता से मेरे अंतर्संबंध को जानते हैं सो टिप्पणी के लिए, उनके द्वारा मुझे चुना जाना अप्रत्याशित भी नहीं... नवोत्पल के उन सुनहरी दिनों में हिमांशू जी के सानिध्य में हम सबने इस कविता को पिया है.. घूँट-घूँट पिया है... हर घूँट का वह स्वाद आज भी मानस में, प्रथम प्रेम के स्पंदन जगाती हुई, विंदा करंदीकर की “मछली एक स्वरचित्र” की मछली सा तैरता रहता है “मुझे मौन होना है” को मैं रचना नहीं कह पाता. इसे कविता कहने में भी मुझे कठिनाई होती है. अवमूल्यन करने जैसा कुछ लगने लगता है. यह तो वैद्यनाथ के सूत्रों के आसपास की कोई चीज़ लगती है... (एक विशेष अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ जिसकी चर्चा फिर कभी).
आखिर रचना और कविता में अंतर क्या है? यद्यपि, इस प्रकार का अंतर व्यवहारिक नहीं. फिर भी, मुझे लगता है, कविता, भाव का वह उन्मेष है, जिसमें, धन्यवाद पुष्पित होता है.. प्रार्थना खिलती है .. शब्द तथागत की मुद्रा में आ जाते है .. हिमांशु जी की इस कविता को पढते-पढते एक स्वत-स्फूर्त दिव्यता उतरने लगती है .. रचना में इन तत्वों को छोड़, शेष कुछ भी हो सकता है.. उत्कृष्ट हो सकता है... “मुझे मौन होना है” रचना की सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए, जिस सौम्यता के साथ छन कर आई हैं... कविता ही नहीं, कविता से भी कुछ आगे का एक शानदार उदाहरण है संक्षिप्तता और संप्रेषणीयता के संतुलन को साधते हुए संकेत में सौंदर्य का अद्भुत सृजन...बादलों में बिजली की कौंध जैसा! आज अपनी इस दीवानगी पर हँसूं या फिर इसे लिख डालूँ... (तुम जो मेरे कृष्ण हो श्रीश, हमेशा परीक्षा लेते रहते हो... *** ) .
अपनी सारी तलाश में हिमांशुकुमार पाण्डेय जी की यह कविता वह है जो उस सीमा तक ले जाती है जहाँ शब्द का प्रवेश नहीं ...लेकिन, महा-काव्यों के महाकाव्य वहीं से रिसते हैं . जहाँ ध्वनि का प्रवेश नहीं लेकिन, सृष्टि का सारा संगीत वहीँ से रूपाकार लेता है... मुझे मौन होना है मुझे मौन होना है तुम्हारे रूठने से नहीं, तुम्हारे मचलने से नहीं, अन्तर के कम्पनों से सात्विक अनुराग के स्पन्दनों से । मेरा यह मौन तुम्हारी पुण्यशाली वाक्-ज्योत्सना को पीने का उपक्रम है, स्वयं को अनन्त जीवन के भव्य प्रकाश में लीन करने की आस है, सुधि में प्रति-क्षण तल्लीन करने वाली आसव-गंध है । अपने स्पन्दनों के संजीवन से मेरे प्राणों में अमरत्व भरो, अपने स्पन्दनों से निःसृत मौन से ही छंदों और ऋचाओं से अलभ्य ’उसे’ ढूँढ़ने की लीक दो, और मिट्टी की गंध-सा यह मौन साकार कर दो चेतना में कि युगों की जमी हुई काई हट जाय, दृश्य हो शुद्ध चैतन्य !
… *** अंतर के ये कम्पन... मौन के लिए जो प्रेरित कर रहे हैं, वे कारण तुम्हारा रूठना नहीं, तुम्हारा मचलना नहीं, अंतर के अपने कम्पन हैं... (कारण बाहर नहीं है भीतर हैं) ये कम्पन कहाँ से आये हैं ? महाविस्फोट की अंतिम आवृति के शांत होते होने में, जीवनराग को साकार करनेवाले सात्विक अनुराग के वे प्रथम स्पंदन ही इनके कारण हैं...(आहा ! योगसूत्र के एक पद का अर्थ ढूंढ रहा था... मिल गया...”अभिनिवेश”का अर्थ मिल गया... योगसूत्र में अभिनिवेश को भी क्लेश कहा गया है और ऐसा क्लेश “विदुष: अपि तथारूढ़:”) वाक् ज्योत्स्ना पर बात अगली बार...!
श्याम जुनेजा जी |
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