(निर्मल वर्मा (अंग्रेज़ी:Nirmal Verma) (जन्म: 3 अप्रॅल 1929 - मृत्यु: 25 अक्तूबर 2005) हिन्दी के आधुनिक साहित्यकारों में से एक थे। हिन्दी साहित्य में नई कहानी आंदोलन के प्रमुख ध्वजवाहक निर्मल वर्मा का कहानी में आधुनिकता का बोध लाने वाले कहानीकारों में अग्रणी स्थान है।)
साभार: समय पत्रिका |
अज्ञेय के बाद शायद ही कोई ऐसा रचनाकार हिन्दी साहित्य को मिला हो, जो मन की इतनी गहराई तक जाकर लिखता हो, जितना कि निर्मल वर्मा। निर्मल के लिए साहित्य बहिर्जगत से ज़्यादा, कहीं अन्तर्जगत की वस्तु है। इसीलिए अपने लेखन के क्रम में वे इस स्थूल प्रत्यक्ष जगत को छोड़ अपने भीतर, आत्म में गहरे उतरते जाते हैं और मन की एक-एक परत को खंगालते हुए, कुछ-कुछ संकोच के साथ सामने रखते जाते हैं।
अपने मन में जाना अपने अनुभवों और स्मृतियों की दुनिया में जाना है। यह लौटना निर्मल वर्मा में बार-बार दिखाई पड़ता है। किसी विषय पर विचार करते हुए वे कहीं बीते हुए वर्षों और अतीत की स्मृतियों में खो जाते हैं। निर्मल के यहाँ स्मृतियों का इस्तेमाल नहीं अपितु स्मृतियों में जीने की कोशिश है। उनके यहाँ विचारों के सभी रास्ते स्मृतियों की गैलरी से होते हुए मन के भीतर ही खुलते हैं। यह खुलना केवल शब्दों का बहाव नहीं है, वरन् इस खुलने में समय को अपने भीतर आत्मसात् कर लेने का प्रयास है। रोज़मर्रा की ज़िन्दगी की बहुत छोटी-छोटी चीज़ों से लेकर मानवीय दुःखों के गहरे सन्दर्भों को पूरी सम्वेदना के साथ छूने की कोशिश है।
निर्मल में गहरा बौद्धिक और आध्यात्मिक चिन्तन दिखाई पड़ता है। इस चिन्तन में जहाँ इतिहास है, वहीं निजी अनुभव भी। उनका चिन्तन भारतीय परम्परा-संस्कृति-दर्शन और पश्चिमी राग के द्वन्द्व को नयी दृष्टि देता है। इसका कारण शायद उनका निजी जीवन ही है। उनके जीवन का अधिकांश समय विदेश में ही बीता है और उन्होंने पर्याप्त मात्रा में विदेशी साहित्य का अध्ययन और हिन्दी में अनुवाद किया है। उनकी कहानियों में इसका प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। वे स्वयं स्वीकारते हैं कि, वर्षों विदेश में रहने के कारण उनकी कहानियों में एक वीराने किस्म का प्रवासीपन छा गया है। यह प्रवासी जहाँ दोस्तोव्स्की, किर्कगार्द, काफ़्का, सार्त्र, नीत्शे, कामू आदि के अस्तित्ववादी दर्शन से प्रभावित दीखता है, वहीं ईश्वरीय अनास्था, संत्रास, अकेलापन, मुक्त मिलन, प्रेम के क्षेत्र में मोहभंग, महायुद्ध के प्रभाव, यथार्थ आदि पर खुल कर बहस भी करता है। सुन्दरम् को सत्यम् और शिवम् से अलग कर एक नवीन व्याख्या को जन्म देता है। इन सबके बावजूद वो प्रवासी अपनी आत्मा को भारतीयता से मुक्त नहीं कर पाता।
ध्रुव शुक्ल को लिखे एक पत्र में निर्मल लिखते हैं- "दुनिया की शायद ही कोई संस्कृति उसके स्वप्न की कल्पना कर पायी हो, जो अनन्त काल से भारतवासियों के जीवन-दर्शन की जमापूँजी रही है।" निर्मल ने स्वयं की एक अन्तर्दृष्टि विकसित की है, जिसके बारे में उनका मानना है कि, यह उन्हें पश्चिम में रहने के कारण मिली है। इसी अन्तर्दृष्टि के द्वारा वे भारतीय संस्कृति को परखते हैं और लगातार धार्मिक विश्वासों की ओर झुकते जाते हैं। इसी कारण उनके निबन्धों में भारतीय संस्कृति, धर्म, मिथक, प्रतीक आदि बार-बार आते हैं, और यह सब उनकी स्मृतियों में ऐसे रच-बस गए हैं कि उनको अलग करके देखना असम्भव है।
स्मृतियों से इतने गहरे जुड़ाव के पीछे भी एक कारण है, निर्मल वर्मा के मन में बसा अकेलापन। व्यक्ति जब अकेलेपन से पीड़ित होता है, तो अतीतजीवी हो जाता है। प्रूस्त से लेकर मार्क्वेज़ जैसे कथाकार हों या ईलियट से लेकर ब्रॉडस्की जैसे कवि; इन सभी में अकेलापन मनुष्य की केन्द्रीय स्थिति के रूप में उभरता है। समकालीन मनुष्य का भयावह अकेलापन निर्मल वर्मा के लेखन के केन्द्र में रहा है। वे अपनी डायरी में लिखते हैं- "मैं हमेशा अकेलेपन पर शोक करता रहा हूँ।" इसी शोक के कारण उनके चारो ओर गहन हताशा और अवसाद का जाल बुना हुआ दिखाई देता है। तनावों का यह संसार उनकी स्वयं की निर्मिति है। वास्तव में निर्मल वर्मा का लेखन इसी तनाव की उपज है। आत्मबोध का तनाव, आत्मा की मुक्ति का तनाव और अकेलेपन का तनाव। यह तनाव एक साथ आत्मिक भी है, मानसिक भी और शारीरिक भी। यह तनाव किसी ख़ास सामाजिक परिस्थिति या केवल व्यक्तियों के बीच में किसी अलगाव या ग़लतफ़हमी के कारण नहीं होता, बल्कि निर्मल मानते हैं कि मनुष्य रूप में जीना ही एक सतत् तनाव में जीने की प्रक्रिया है। अकेलेपन का यह भाव न कोई पशु महसूस कर सकता है, न कोई एन्जिल या देवता, जिस तरह से मनुष्य अनुभव करता है। वीरान हॉस्टल में अकेली बैठी 'परिन्दे' की लतिका हो, अस्पताल के कमरे में अपने अकेलेपन से मुक्ति की छटपटाहट लिए 'बीच बहस में' के पिता-पुत्र हों, 'कव्वे और काला पानी' के साधू बाबा हों या 'अँधेरे में' का बच्चा ; सभी अपने-अपने तरीके से इसी भाव में जी रहे हैं। सबका अपना अलग-अलग अकेलापन है, और ये पात्र अकेलेपन से भागते नहीं, बल्कि इसका आनन्द लेते हैं।
साभार:सत्याग्रह |
निर्मल वर्मा की कहानियों में प्रेम भी इसी अकेलेपन की विडम्बना के साथ आता है। ऊपरी तौर पर तो वह अकेली आत्माओं का सहज आकर्षण ही प्रतीत होता है, परन्तु ऐसा है नहीं। ये पात्र अपने अकेलेपन से भागने के लिए एक-दूसरे के करीब नहीं आते, अपितु इसके ठीक विपरीत अपने अकेलेपन के आलोक को पाने के लिए ही प्रेम करते हैं। यह प्रेम ही है जो अकेलेपन की वास्तविक व्याख्या समझाता है। नन्दकिशोर आचार्य कहते हैं- "प्रेम करते हुए भी इस अकेलेपन से मुक्त न हो पाना और मुक्ति के लिए छटपटाहट तथा अपने प्रयास की दुखान्त परिणति के बोध की वेदना ही निर्मल की कहानियों का केन्द्रीय सरोकार है।" निर्मल वर्मा का चिन्तन इसी वेदना और आत्मबोध की यात्रा है।
निर्मल वर्मा के लेखन में एक जिज्ञासु व्यक्ति की व्याकुल आकांक्षा है। यह आकांक्षा सुख और दुःख, जीवन और मृत्यु के बीच भटकती हुई फैलती रहती है, इन सबको उनके पूरे मनोभावों के साथ अलग-अलग पहचानना चाहती है। भाषा के नैतिक, आध्यात्मिक आयामों को विकसित करती उनकी रचनाएँ उनके आत्मीय, पारदर्शी और लयात्मक गद्य के साथ मनुष्य के भीतर के उजाले और अँधेरे की जिस सजीवता के साथ तलाश करती है, उसे अनुभूति की दुर्लभ साधना और जिज्ञासा से ही पाया जा सकता है। उनके लेखन में मानवीय मन को खोजने का यह सिलसिला निरन्तर जारी रहता है। अपने उपन्यास 'रात का रिपोर्टर' में एक स्थान पर वे लिखते हैं- "......... मन के मानचित्र पर जो इतने विराट महाद्वीप अँधेरे में पड़े रहते हैं, क्या उन्हें खोजने वाला कोई कोलम्बस नहीं..?" वास्तव में निर्मल वर्मा ही वह कोलम्बस हैं, जो उदास और ख़ामोश रहकर अपने भीतर के अवसाद आनन्द को लगातार खोजते रहते हैं।
डॉ. जय कृष्ण मिश्र 'अमन ' |
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