पिछली मर्तबा बात छात्रसंघ चुनावों के दरम्यान विश्वविद्यालय के माहौल की हो रही थी तो वहीं से शुरू करते हैं:
डॉ. गौरव कबीर |
जब
कभी छात्र नेता अपने रेगुलर प्रचारकों को छोड़ कर सिर्फ शरीफ माने जाने वाले लड़कों के
साथ दीक्षा भवन मे घुसते तो इन रेगुलर समर्थकों के सीने पर तो मानो साँप ही लोट जाता
था। ये होना स्वाभाविक ही था क्यूकि “मर्द टाइप रेगुलर प्रचारक” के नज़रिये के हिसाब
से तो इन “मऊगा टाइप” लड़कों के दम पर चुनाव नहीं जीता जा सकता था। पर समझदार छात्र
नेता जानते थे कि कहाँ मर्द बन कर भोकाल टाइट करना है और कहाँ इन कलाकर लड़कों को साथ लेे कर हाथ जोड़ कर “दीदी-दीदी”
कह कर वोट मांगना है।
Google Image |
मर्द
टाइप छात्रों और पूर्णत: पढ़ाकू छात्रों के बीच साल भर हिकारत कि नज़र से देखे जाने वाले
ये “एक्सट्रा करीकुलर एक्टिविटी” वाले लड़के
एकाएक अपनी पूछ बढ़ जाने से अति प्रसन्न हो जाते थे और प्रचार मे अपने आप को झोंक देते।
कुछ तो मानसिक रूप से इतना ज्यादा इनवोल्व हो जाते कि उनके सपनों मे भी बस चुनाव आते
थे । खुद को अगले चुनावों मे उम्मीदवार तक मान बैठे थे। हालांकि तब उनमे से कोई भी
गंभीरता पूर्वक छात्र राजनीति में नहीं आ सकता था , शायद छात्र राजनीति करने भर
के पैसे जुटाना उनके बस का नहीं था। यूं भी तब ठेकेदारी के पैसों से चुनाव लड़ने का
ज़माना था।
धीरे
–धीरे ही सही पर राजनीति का असर इनके परस्पर सम्बन्धों पर भी पड़ने लगा, अब “एक्सट्रा
करीकुलर एक्टिविटी” वाले छात्रों में प्रत्याशियों के हिसाब से खेमेबंदी भी होने लगी
(जाति वाली खेमेबंदी तो पहले सी ही थी)। सुकून बस इतना था कि ये खेमेबंदी 20-25 दिन
तक ही रहती थी। बाद मे कोई युवा- महोत्सव का चयन होने लगे तो सब एक हो जाते थे। इस सब के बीच इन कलाकार लड़को के प्रदर्शन पर भी फ़र्क जरूर पड़ता था ।
अरसे बाद जब मैंने तिग्मांशु धूलिया की फ़िल्म 'हासिल' देखी तो लगा कि हमारे ही विश्व विद्यालय की कहानी है । शायद हर शिक्षण संस्थान की मोटा-मोटी यही कहानी होती है, जहां सामान्य छात्र चुनावी फायदे के लिए छले जाते हैं ।
अरसे बाद जब मैंने तिग्मांशु धूलिया की फ़िल्म 'हासिल' देखी तो लगा कि हमारे ही विश्व विद्यालय की कहानी है । शायद हर शिक्षण संस्थान की मोटा-मोटी यही कहानी होती है, जहां सामान्य छात्र चुनावी फायदे के लिए छले जाते हैं ।
(क्रमश:)
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