बात 2001 की है। गोरखपुर विश्वविद्यालय के दीक्षा भवन में युवा संसद का फाइनल शो था। रोहित पांडेय प्रधानमंत्री थे और इस समय उत्तराखंड में जज मनीष पांडेय नेता प्रतिपक्ष की भूमिका में थे। विश्वविद्यालय के दो श्रेष्ठ वक्ताओं में यह श्रेष्ठता निर्धारित करने का भी संवाद था। इसलिए आखिरी समय तक स्क्रिप्ट बदलती रही। उस युवा संसद में मैं सांसद की भूमिका में था। मुझे आज भी 5 फीट 3 या 4 ऊंचाई व घनी मूंछ वाले प्रधानमंत्री रोहित पांडेय का संवाद ठीक-ठीक याद हैं 'हम कमर के नीचे वार नहीं करते।'
दैनिक जागरण में रोहित भाई 'हफ़्ते की बात' कालम लिखते थे। गोरखनाथ में खिचड़ी का मेला लगा हुआ था। लड़कियों की नाच हुआ करती थी। आध्यात्म के परिसर में इस मनोरंजन का औचित्य मुझे उस समय ठीक-ठीक समझ नहीं आता था। विश्वविद्यालय में ही रोहित भाई से चर्चा हुई। बोले, पत्रकारिता की बाहर और अंदर की दुनिया में बहुत अंतर है। यहां बहुत कुछ दिखता है सब लिखा नहीं जा सकता। सामान्य चेतना सक्रिय थी। मैं निहितार्थ समझ गया। कविता लिखने का नया शौक चढ़ा था। गोरखनाथ मंदिर के घटनाक्रम पर एक कविता लिख डाली। उसमें एक पंक्ति थी 'पत्रकार लिखता है तो नौकरी चली जाएगी'। रोहित भाई ने कविता पढ़ी। मुस्कराए] बोल 'बेटा बहुते तेज हो, हमको भी नहीं छोड़े!' दैनिक जागरण के गुरुवारीय साप्ताहिक के अगले अंक में 'हफ्ते की बात' में रोहित भाई ने मंदिर की नाच पर कलम तोड़ डाली थी।
छात्र से अंशकालिक शिक्षक और लेखन में पूर्ण लेकिन कागजों में अस्थाई पत्रकार रोहित पांडेय ने कभी कमर के नीचे वार नहीं किया। पर क्या उनकी कमर बची? नहीं! व्यवस्था ने उनकी कमर तोड़ कर रख दी। दैनिक जागरण में लंबे समय तक संवाद-सूत्री करने के बाद अन-बन के चलते रोहित भाई हिंदुस्तान चले गए। यह वही दौर था जब मैनें प्रेसक्लब की राजनीति शुरू की थी। रोहित पांडेय वहां प्रेसक्लब के कार्यकलापों पर नजर रखने वाली संस्था 'समीक्षा' के माध्यम से समानांतर विपक्ष की भूमिका में थे। तेवर वाले आदमी थे इसलिए सबको समझ में नहीं आते थे।
रोहित भाई आंख में आई किसी दिक्कत को दिखाने डॉक्टर के पास गए और वहां से किडनी खराब होने की रिपोर्ट लेकर आ गए। हर व्यसन से दूर रोहित भाई को यह बीमारी होना हम सबके लिए चौंकाने वाला था। खैर! इलाज शुरू हुआ। हर कदम पर मोटा रुपया चाहिए था। संवाद सूत्र की तनख्वाह 8-10 हजार हुआ करती थी। यह हालात नंगा नहाएगा क्या निचोड़ेगा क्या वाली थी। हिंदुस्तान में उनको परमानेंट किए जाने की प्रक्रिया आगे बढ़ी थी लेकिन वहां के एक साहब की मूंछ आड़े आ गई। लिहाजा, कागज फंस गया। खैर! इलाज के लिए अलग-अलग स्तरों से मदद जारी थी।
मैं दैनिक जागरण में तब तक संवाद सूत्र के तौर पर सेवाएं देने लगा था। गोरखपुर विश्वविद्यालय से लॉ भी साथ ही कर रहा था। हमने कार्यक्रमों एवं संबंधों के जरिए कुछ पैसे जुटाने की कवायद शुरू की। हिंदुस्तान के वरिष्ठ पत्रकार हर्षवर्धन शाही जी का सवाल था कि इसकी क्या गारंटी है कि आप लोग इस रसीद का दुरुपयोग नहीं कर रहे हैं? हमने साफ कर दिया 'सर! किसी की मदद के लिए हमें प्रमाणपत्र नहीं चाहिए।' खैर! जो बन पड़ा किया गया। रोहित भईया से बात बात होती रही। आवाज धीरे-धीरे कमजोर पड़ते-पड़ते खामोश हो गई।
रोहित पांडेय के नाम से आधे- आधे पन्ने की खबर छपा करती थी। उनकी मौत की खबर भी कहीं संक्षेप में छपी थी शायद। हमारे प्रेसक्लब के साथी अब भी उनकी पुण्यतिथि पर आयोजन का क्रम जारी रखे हैं। हालांकि! इस सवाल से किसी का वास्ता नहीं है कि रोहित पांडेय जैसे तेज तर्रार पत्रकारों की सामाजिक सुरक्षा का क्या? पत्रकारिता से क्रांति की उम्मीद रखने वाले और बात- बात पर उसको कोसने वाले समाज के प्राण रोहित पांडेय जैसे की बुनियादी जरूरतों के सवाल पर सूखने क्यों लगते हैं?
मैं जानता हूं इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है। मेर पास भी नहीं कि कल को अगर मुझे कुछ हो जाए तो मेरे परिवार की रोजी-रोटी, दवाई और बेटी की पढ़ाई का इंतजाम कैसे होगा? लेकिन, इन सवालों से डर जाएंगे तो लिखेंगे क्या और जिएंगे क्या? इसलिए चरैवेति! चरैवेति!
(लेखक नवभारत टाइम्स समूह में प्रधान संवाददाता हैं)
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