नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Wednesday, March 1, 2017

#2# विश्वविद्यालय के दिन: ' डॅा. गौरव कबीर '


[“वक़्त ने मुझे बर्बाद किया अब मै वक़्त को बरबाद कर के बदला ले रहा हूँ”]
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जैसा की पिछले भाग मे आप को बताया कि गमलों मे बगिया सज रही थी |  बावजूद इसके अभी भी कुछ पुराने वृक्ष यथावत अपना अस्तित्व सम्हाले हुए थे और उनमे से ही एक वृक्ष मजीठीया भवन के प्रांगण मे भी था । यूं तो ठीक ठीक याद नहीं कि वो वृक्ष किस प्रजाति का था , पर जो भी था छायादार था, भीमकाय चबूतरे से लैस था और प्रांगण के मध्य भाग मे होते हुए भी पिछले द्वार के बेहद करीब था । एक ख़ूबी ये भी थी की विश्वविद्यालय के आस-पास स्थित रेस्टोरेन्ट मे सब से अच्छे रेस्टोरेन्ट जायका (ज़ायका) का ये निकटतम बिन्दु था, यानि लाये गए समोसे गरमा गरम ही रहते थे। भला इतनी खूबियाँ एक साथ कहाँ मिलती हैं ?? फिर इस से अच्छी जगह क्या होती छात्रों के लिए।

विद्यार्थी यहाँ समान्यतया गणित, भौतिकी , सांख्यिकी, रसायन विज्ञान समेत सभी विषयों पर चर्चा किया करते थे । लेकिन विज्ञान की इन बातों के मध्य ही कहीं साहित्य और फिल्मों पर नही चर्चा हो ही जाती थी | ये "मोहब्बतें" फिल्म के नारायण शंकर और राज आर्यन का दौर भी था तो फिल्मों  का भी असर युवामन पर पड़ना स्वाभाविक ही था | | कुछ ने यही पर बैठे बैठे वैज्ञानिक कैलकुलेटर चलाना भी सीखा (तब लैपटाप नहीं था) । यूं तो कुछ लोगों का कहना था प्रांगण में रंग बिरंगे परिधानों मे बैठी छात्राओं को देखने के लिए ही छात्र यहाँ आते हैं , पर विभाग और संकाय का वास्तुशास्त्र इसकी तसदीक नहीं करता , क्यूँ कि हर तरफ से वो प्रांगण नज़र आता है | लेखक इस थोथे  तर्क को उस महान वृक्ष के महत्व को कम करने की कुत्सित मानसिकता मात्र समझता है । गणित के विद्यार्थियों के मन बहलाव कि एक मात्र जगह थी जो उन्हे नीरस कक्षाओं और गणितीय समीकरणों से दूर जीवन के होने का भान कराती थी यहाँ गीत गायन, अंताक्षरी आदि भी होती थी पर ऐसा करने वालों को प्रायः हिकारत भरी दृष्टि से देखा जाता था … हाँ अन्य गतिविधियों के नाम पर फ़्रेशर पार्टी और फ़ैरवेल पार्टी ही हो सकती थी पर वह विभाग की कक्षाओं तक ही सीमित थी  । कारण न जाने क्या था / है  पर गणित वाले विद्यार्थियों में  थोड़ी ऐंठ की मात्रा  जरूर पायी जाती है |  ( छोटे शहरों मे गणित पढ़ना मर्दाना काम माना जाता है

इस वृक्ष के नीचे का इलाका लोकतान्त्रिक था परंतु वरिष्ठता का सन्मान किया जाता था अर्थात  जब वरिष्ठ बैठे हो तो जूनियर खुद ब खुद वहाँ नहीं जाते थे। इस सम्मान की वजह सामन्यतः नॉलेज ही होता है , क्यों कि गणित में गुंडई नहीं चलती |  इस स्थान पर जो ज्ञान मिलता था वो अनमोल होता था, जैसा कि दिवाकर बाबा कहते थे “वक़्त ने मुझे बर्बाद किया अब मै वक़्त को बरबाद कर के बदला ले रहा हूँ” इस सूत्र वाक्य को मूल वाक्य समझ कई छात्र उन का अनुसरण कर बैठे और फ़ेल हुए ... जबकि दिवाकर बाबा कभी क्लास मे नहीं गए पर हर बार 70% अंक पाया करते थे।  ऐसे दिवाकर बाबा हर दौर में पाए जाते है | 


साल 2003 ... ये वो दौर था जब विश्वविद्यालय मे चुनाव करवाने का ऐलान हो जाता है , वह भी लिंगदोह आयोग की सिफ़ारिशों को बिना माने , नतीजतन जब सब कुछ अपनी रवानी और जवानी पर था तब ही वयोवृद्ध छात्र नेतृत्व (?) को आगे बढ्ने का मौका मिल जाता है और चुनावो मे वह सभी लोग सक्रिय जाते है जिन के बच्चे भी संभवतः उसी विश्वविद्यालय मे वोटर की हैसियत से दाखिला ले चुके थे |  शहर मे बाल रंगने का नया बाज़ार जन्म ले चुका था | और जिन्हे प्रथम वर्ष के छात्र चाचा / मामा कह सकते थे उन नेताओं को मजबूरी मे भैया बुला रहे थे | राजनीति हो रही थी या गुंडई समझ मे नहीं आ रहा था ... यह एक नए प्रकार का लोकतन्त्र था | वास्तविक छात्र लोकतन्त्र के इस आतंक से भयभीत होकर अपनी कक्षाओं मे छुपने की कोशिश कर रहे थे ... छात्राएँ विशेष रूप से आतंकित थीं ... आंकड़े तो नहीं हैं पर चुनाव आते आते उनकी उपस्थिति कम ही हो गयी थी ...!!!  

पर्चे और पोस्टर्स की बहार थी, प्रांगण के अलावा पूरा शहर भी नारों से रंग दिया गया था ... इन नेताओं के समर्थक जो उस समय विश्वविद्यालय के छात्र भी नहीं थे परिसर मे धमाचौकड़ी मचाए हुए थे ... कुछ लोगो ने तो गोलियों कि आवाज़ भी सुनी थी | कहते हैं कि गोरखपुर का माफिया भी इन् चुनावों में पैसा लगाता था | ऐसा हो भी क्यों न , जब उनके बहुबहलियों की भर्ती भी इसी विश्वविद्यालय से होनी थी | हर तरफ बस नारे गूंज रहे थे और कुछ नारे ऐसे थे जिनमे धमकियाँ भी थी ... जैसे " हर मर्ज कि एक दवा है ***** पांडेय , ***** पांडेय , अश्वमेध का घोडा है , ******* सिंह ने छोड़ा है | मजेदार बात है कि उस समय घोड़े कि बात हो रही थी जो अब गदहे तक पहुँच चुकी है | 

इस शोरगुल का असर विज्ञान संकाय पर भी पड़ा , इस दौर को देख कर हमेशा गुलज़ार रहने वाला वृक्ष अब अकेला ही कलपता हुआ  भयभीत हो रहा था |  



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