अखिलेश |
यकीनन स्त्री का सबसे सहज स्वाभाविक प्रतीक प्रकृति में
पृथ्वी ही है l पृथ्वी की तरह ही यह विविधता का निर्वाह करती है, धैर्य का असीम
दाब सहती है, अनगिन दुर्घर्षों में भी गतिशील रहती है, मौसम-माहौल के माकूल शृंगार
कर जीवन का रस संवारती है l पृथ्वी की भांति ही स्त्री के भी अतुलित तल हैं,
स्त्रीप्रकृति में नदी का प्रवाह भी है, पहाड़ की उदात्तता भी, सागर सी प्रचंडता भी
है और है स्त्री सागर की तरह बहुधा प्रशांत भी l पृथ्वी की ही तरह स्त्री जब तब
भूकंप झेलती है, सुनामी का आवेग बर्दाश्त करती है और फिर भी स्त्रीत्व का अपना
धर्म निभाती चलती है l
इस कविता की खासियत इसका बिम्ब तो है ही, पर बिम्ब विधान
कविता के कथ्य पर हावी हो, रचनाकार यह तो नहीं ही चाहेगा l कवि का यह उद्देश्य भी
नहीं हो सकता, बस बिम्ब साम्यता के लिए वह एक कविता नहीं ही लिखेगा l प्रकृति के
बहाने स्त्री के असीमित संस्तर कवि स्पर्श करने और उसकी इयत्ता के अनगिन वितान
स्पष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं l कवि युवा हैं, कुशल शब्दशिल्पी हैं और प्रभावी
व्यक्तित्व हैं अखिलेश l आपकी कविता पर टिप्पणी कर रहे हैं अशोक कुमार जी
!
(डॉ. श्रीश )
साभार:गूगल इमेज |
अजीब शौहर है सूरज
धरती चाहे दिन रात चक्कर काटे उसके चारों ओर
नाच जाये अंगूठे पर
इस कदर कि कमर झुक जाये एक ओर ।
बादल को एक नज़र देख मुस्कुरा भर देने पर
बदचलन वाली गाली अब भी जवान है भले ही धरती बुढ़ा गई हो ।
जब तक स्त्री के पास देह है पुरूष एक काली बिंदी हमेशा रखता है उसके देह पर
करता रहता है 'संदेह'।
दिन भर बात बात पर
तमतमाने वाला सूरज
इतना ही प्रचंड मर्द है तो रात में मुँह चुरा भागता क्यों है बेगम को चाँद तारों जैसे शोहदों में छोड़कर ।
कितना भी मामा कहो चाँद को अकेली स्त्री देख कौन झुककर पास नहीं आता वो तो सती की ताकत है
जो ज्वार ला देती है
अंत में माहुर खा डराती है उगलने लगती है झाग,फेन ।
शराबी पति है सूरज
भोर भये नाली से निकलता है शर्म से लाल होकर ।
और धरती..
सारे पुष्प, सारी चहचहाहट समेट स्वागत करती है रोज
कि कभी तो पश्चिम में बने मदिरालय की राह तजेगें परमेश्वर ।
दुनिया में ऐसी कोई स्त्री नहीं है जिसे श्रापा न गया है,
नमक कम होने पर लगातार उलाहने से तंग चुटकी दर चुटकी नमक बढ़ा रही है
धरती सागर का खारापन पहाड़ में बदल रहा है
सूरज यही पुरातन बहाना धर थाली फेंक देता है
दिन में एकाध बार झुलसा ही देता हैं उसका ज़िस्म।
प्रेम न हो तो
अपनी ही देह का तीन चौथाई पानी ख़ारा हो जाता हैं
धरती नाक तक जल में डूबी हैं पर उसके कंठ में प्यास हैं ।
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*अखिलेश *
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प्रकृति का मानवीकरण कर कविता लिखना एक बहुत कठिन कार्य है.अमूमन प्रकृति से पात्रों या बिम्ब को उठाते हुए रचनाकार अमूर्तन की रचना रचता है.कवि अखिलेश की कवितायें इससे इतर इन तत्वों से मानवीय रिश्तों के एक अलग वास्तविक संसार की रचना करती हैं जो यथार्थ के धरातल पर टिकती हैं.
उनकी कविता में सूरज एक प्रोटो- टाईप पुरुष है जिसे देख कर भारतीय समाज में मर्द की परिभाषा गढ़ी गयी है.मर्द वह जिसका एकाधिकार हो पत्नी रूपी स्त्री पर.जिसे कोई देखे नहीं ,जिसे देखे तो सिर्फ उसका मर्द यानी पति.इतिहास साक्षी है कि स्त्रियाँ सम्पत्ति हुआ करती थीं राजाओं महा- राजाओं की ,जैसे धन - दौलत ,जमीन ,सोना - चाँदी ,ढोर डांगर सरीखे मवेशी आदि.उनके प्रति पजेसिव होना आज भी एक प्रोटो- टाईप खांचे में ढले मर्द की खासियत है l
पुरुष एक काली बिंदी हमेशा रखता है
उसके देह पर
करता रहता है ' संदेह '
सूरज के रात में पलायन को कवि द्वारा व्यक्ति के अपने कर्तव्य विमुखता और दायित्व की अवहेलना से जोड़ा गया है जहाँ चंदा मामा भी एक अन्य पुरुष खांचे के रूप में सामने आता है और अपनी लम्पटता के दर्शन कराता है.कामी ,भोगी ,लापरवाह ,शक्ति दम्भी पुरुष का चित्र प्रकृति के प्रतीकों के माध्यम से कवि द्वारा रूपायित किया गया है जो आज भी प्रगति की ओर उन्मुख जीवन का एक बड़ा सच है.
कविता में स्त्री के सतीत्व की व्याख्या भी बड़े ही प्रासंगिक संदर्भ में उसके चरित्र को रूपायित करने के लिये सटीक ढंग से की गयी है.
नमक और पानी चेहरे और व्यक्तित्व की चमक का एक बड़ा ही व्यावहारिक प्रतीक है जिसे माध्यम बना कर प्रेम को कवि ने यथार्थ के धरातल पर चित्रित किया है :
प्रेम न हो तो
अपनी ही देह का तीन चौथाई पानी
खारा हो जाता है.
अशोक कुमार |
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