खलीलाबाद में पिछले दो दशकों से मेरा परिवार बस गया था । माँ सरजू के तट से लगे गाँव बईसा से लगभग ३० किमी दूर उत्तर में स्थित खलीलाबाद अब तहसील से जनपद हो गया था । कहते हैं कि जमींदार खलीलुर्रहमान के नाम पर इस पुराने कस्बे का नाम खलीलाबाद पड़ा । खलीलुर्रहमान, दुनिया में कई और जगह भी हुए होंगे, कुछ उसमें रसूखदार भी रहे होंगे तो कुछ की याद में शहर भी बने होंगे ही तो; हाँ जनाब, इस दुनिया में खलीलाबाद कई और भी मुल्कों में हैं । पर कबीर के मगहर, गोरखनाथ के गोरखपुर और बुद्ध के सिद्धार्थनगर से गलबहियां करता शहर तो हमारा वाला ही खलीलाबाद है ।
गोरखपुर विश्वविद्यालय की दूरी खलीलाबाद से लगभग ३५ किमी थी । कक्षाएं लेने के लिए यह समझाया गया कि रेलवे का मासिक पास बनवाया जाय और रोज रेलवे से आया जाया जाय । पापाजी चाहते थे कि इसे जरुर ही हास्टल (हॉस्टल कहते हैं यह तो कम से कम मुझे दिल्ली आकर पता चला) में रहना चाहिए वरना इसे पता नहीं चलेगा कि दुनिया कैसी है और इसके रंग कैसे हैं...! लेकिन जब तक हॉस्टल नहीं मिलता तब तक तो ट्रेन से सफ़र करना होगा ।
मासिक पास बन गया था । झुण्ड के झुण्ड छात्र झटके से ट्रेन में चढ़ते और एक घंटे में हम गोरखपुर पहुँच जाते । ज्यादातर के गाल पिचके, आँखें धंसी, जुल्फे बेपरवाह, शर्ट इन नहीं, मोहड़ी मुडी हुई, बाकी चीजें जैसी भी हों भाई साहब लेकिन जूते जरुर शानदार रहते थे, खासकर स्पोर्ट शूज । ओह, ढंग जो भी हो क्या उमंग था स्टूडेंट्स में । शकल देख के समझ आ जाता कि कौन डिग्री कॉलेज का स्टूडेंट है और कौन इनवस्टी का । लपक कर हाथ ऐसे मिलाते थे जैसे किसी देश के आलाकमान हों और हैंडशेक का देसी तरीका भी निकल आया था । हाथ मिलाने के बाद दोनों जन अपने अपने हाथ अपने अपने सीने से हल्का सा लगा लेते थे, तो हम मॉडर्न भी हो लेते थे और ठेठ भी, कर लो हमारा जो करना है अमरीका वालों।
ट्रेन का वह एक घंटा बड़ा ही रोमांचक होता था । इसमें जरुर कुछ ऐसा मिल जाता था जिसपर हम लोगों से दिन भर बतिया सकते थे । ट्रेन के अन्दर ही घंटे भर के लिए इनवस्टी उभर आती थी और फिर वो झूम के परिसर में खिल जाती । ट्रेन और प्लेटफ़ॉर्म की एक अलग ही दुनिया होती है । नथुनों में वो बू बस जाती है जो वहां पायी जाती है । भारत का कोई प्लेटफ़ॉर्म हो, आपको वो बू जरुर मिल जायेगी । बोगियों में सहसा जब हम छात्र बैठते तो अक्सर हम स्लीपर क्लास में बैठते । एक घंटे की ही तो बात होती थी । ज्यादातर दिल्ली के मुसाफिर होते थे, जिन्हें गोरखपुर उतरना होता था । कुछ लोग बड़े नाक भौं सिकोड़ते पर कर कुछ नहीं पाते थे, क्योंकि वो लोग भी भले आज हाफ पैंट-बरमुडा में जर्नी करने लग गए हों और दिल्ली की भाषा ने उनके 'हम' को 'मै' में तब्दील कर दिया हो, रुमाल व गॉगल्स का इस्तेमाल बेवज़ह भी करने लग गए हो, वे जानते हैं कि जब वे पक्के गोरखपुरी थे तो पान की पीक कितनी दूर तक छोड़ते थे । उन्हें ईल्म इतना तो था ही कि पक्के पूर्वांचली से कच्चे डेल्हाईट्स बन मुकाबला नहीं किया जा सकता था, वो भी तब जब ट्रेन गोरखपुर पहुँचने ही वाली हो ।
बात केवल दबंगई की नहीं थी । ये छात्र गंवार भी तो नहीं थे; इस उम्र के छात्र अख़बारों के सम्पादकीय अब पढने लग जाते हैं, तो इनसे एकतरफा बहस भी नहीं की जा सकती थी । खैर मुझे ये सब तो धीरे धीरे महसूस हुआ, पर उस दिन आश्चर्यचकित हो गया कि ये जो मासिक पास है वो कायदतन प्रथम श्रेणी के डिब्बे के लिए था । कुछ देर बाद ही अन्तःप्रज्ञा ने अंगड़ाई ली और आवाज आयी- यार, ये सरकार बड़ी बदमाश है अपने नौनिहालों को प्रथम श्रेणी के डिब्बे का पास देती है, ऐसे करेंगे ये शिक्षा का विकास ।
ज़ाहिर है उस वक़्त तक मै यह नहीं देख पा रहा था कि - लोगों की अलग अलग माली हालत पर बेशर्मी से मुहर लगाते हुए लोककल्याणकारी, समाजवादी लक्ष्यों वाली, 'हम भारत के लोग' वाली सरकार ने सार्वजनिक यातायात के सबसे बड़े माध्यम को भी लगभग उतनी ही श्रेणियों में बाँट रखा है । और यह विभाजन अभी भी है, नज़र भी नहीं आता और नज़र आता भी है तो उसमें कुछ ग़लत नज़र नहीं आता ।
काश हमारा महान भारत दुनिया का पहला ऐसा देश होता, जहाँ ट्रेनों में बस एक ही श्रेणी होती, तो क्या हुआ थोड़ी कम ही सुविधाएँ होतीं. अंगरेजी पूंजीपतियों द्वारा लाई गयी ट्रेन में जब नवीन भारत के कर्णधार समाजवाद स्थापित कर अपना मौलिक हस्तक्षेप करते तो यह उदाहरण सोवियत के भी किसी भी उदाहरण से अधिक उदात्त होता । जब सभी एक साथ यात्रा करते तो तीर्थ साकार होता, समरसता बढ़ती, संवेदनशीलता बढ़ती और तब साफ़-सफाई हर बोगी में होती, केवल कुछ में नहीं । भगवान के लिए कोई अर्थशास्त्री ये ना कहे कि दुनिया में कहीं ऐसा नहीं होता, तो हम कैसे कर सकते हैं; क्योंकि अचानक टर्की ने आधुनिकता का चोला पहना तो भी कोई विश्वास न कर सका था, जर्मनी फिर फिर खडा हो जाता था, तो विश्वास नहीं होता था, जापान ने १९०५ में ही विशालकाय रूस को धूल चटा दी, तो विश्वास नहीं होता था, तेरह छोटी-बड़ी कॉलोनियों से बना नया नवेला संयुक्त राज्य अमरीका कभी विश्व की महाशक्ति बन जायेगा किसने सोचा था.....उदाहरण कई और भी हैं, और जबकि अपने महान भारत के अलावा दुनिया में कोई और देश भी तो नहीं जो उच्च स्वर में 'वसुधैव कुटुम्बकम' का शंखनाद करने का आदी रहा हो ।
ट्रेन वो पहली जगह थी जहाँ भांति भांति के लोगों का अलग अलग होना पहली बार मैंने करीब से महसूस किया । इसके पहले मैंने ८-१० बार ही यात्रा की थी, ट्रेन की । जरुरत ही नहीं थी, रिश्तेदार आस-पास ही के थे और गर्मी की छुट्टी आउटस्टेशन मनाने की प्रथा वाला अपना परिवार था नहीं । जिनके पापाजी लोगो का ट्रांसफर हुआ करता था, वे ऐसी महान उपलब्धियां साल दर साल बटोरते और हमें सुनाते, खैर ! मायूस मन तब भी नहीं होता था, अपने भविष्य पे भरोसा बहुत था ना ! इनवस्टी के बहाने पहली बार ट्रेन में सफ़र का मौक़ा मिला था । जाते वक़्त तो गहमागहमी चरम पर होती थी, पर लौटते वक़्त ट्रेनें काफी खाली मिलती । अपना मन तो इनवस्टी में ही रमता था, तो सारी कक्षाएं ले के ही आते थे, कक्षाएं चलें ना चलें ।
#१# विश्वविद्यालय के दिन: श्रीश पाठक 'प्रखर '
(क्रमशः )
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