उर्वशी-पुरुरवा: राजा रवि वर्मा (विकिपीडिया) |
"मिथक और इतिहास के बीच जो अन्तर है, एक तरह से वह पश्चिमी संस्कृति और भारतीय परम्परा के बीच भी परिलक्षित होता है। इतिहास अपने चौखटों के भीतर काल की अन्धी, अन्तहीन गतिमयता को बाँधने का प्रयास है ताकि उसे किसी प्रकार की क्रमशीलता, सोद्देश्यता, अर्थवत्ता प्रदान की जा सके-- अपने ज्ञान के मापदण्ड से वह उसकी अनन्तता को भेद कर कहता है, यह आरम्भ है, यह अन्त और इस तरह उसे एक मानवोनुकूल, anthropomorphic, दिशा देने का प्रयत्न करता है, उस 'अन्त' की ओर मोड़ता हुआ जहाँ उसका कोई अर्थ, कोई पैटर्न, कोई संगति निकल सके-- और उसके अनुरूप मनुष्य अपनी 'नियति' (destiny), निर्धारित कर सके। इसी अर्थ में उसे messiahanic time कहा जाता है-- जहाँ किसी मसीहा की दृष्टि ही मानव नियति का प्रतीक बन जाती है। इसके विपरीत मिथक एक उलटी दिशा निर्देशित करता है-- वह मनुष्य को अपनी 'मानवीकृत' सीमाओं से उठाकर एक ऐसे सनातन बोध की ओर ले जाता है, जहाँ मनुष्य अपने 'होने' की अर्थवत्ता काल को खण्डित करके नहीं, उसे अतीत और भविष्य में विभाजित करके नहीं, बल्कि स्वयं उसकी अनन्त प्रवाहमयता के भीतर संलग्नता (connectedness) खोजने में निहित रहती है। संलग्नता के इस भाव में मनुष्य अपने भीतर जिस ईश्वर से सम्पर्क करता है, वह, वह ईश्वर नहीं है, जिसका कोई रूप निर्धारित किया जाये।"
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