हिंदी का मिथक शब्द अंग्रेजी के मिथ से बना है। मिथ शब्द ग्रीक भाषा के शब्द मिथोस (mythos) से निर्मित है, जिसका अर्थ कहानी या गल्प होता है। मिथक शब्द की परिभाषा भी मिथकों की तरह मायावी और उलझी हुई है। कई लोग मिथकों को संसार की उत्पत्ति की तरफ इशारा करती आधारहीन कहानी समझते हैं तो कई लोग इन्हें मनुष्य, वस्तु अथवा किसी घटना के बारे में फैलाई गई ऐसी बेबुनियाद व्याख्याएं कहते हैं, जिन्हें लोगों द्वारा सच मान लिया गया हो। कहना न होगा सामान्यत: संसार में मिथकों को ऐसे नज़रिये या रिवायत के रूप में जाना जाता है, जो संसार की व्याख्या करने के लिए विज्ञान और तर्क की जगह कोरी गल्प कथाओं का सहारा लेती हैं।
यह सच है कि मिथकों का कोई दृढ़ तार्किक आधार नहीं होता है। यह आदिम मानव की, हमारे जांगल पूर्वजों की वे व्याख्याएं हैं जिन्हें अपने उर्वर मस्तिष्क की क्षमतानुसार गढ़ा एवं इसमें अपने वातावरण और जीवनशैली सम्बन्धी सूत्र और उपलब्ध ज्ञान को पिरोया। हमारे पूर्वज ब्रह्माण्ड, मानव और पृथ्वी की रचना की तार्किक एवं तथ्यपरक व्याख्या करने में असमर्थ थे। उनके पास अपने अस्तित्व और परिवेश को लेकर सवाल थे, ऐसे सवाल जिनका जवाब उन्हें उस वक्त उपलब्ध ज्ञान के आधार पर देना था। उन्हें समझना था कि वह सब जो उनके आस-पास हो रहा है उसके पीछे क्या वजह है।
इन सवालों के जवाब ने उन्हें आस-पास के परिवेश को लेकर सुन्दर कल्पनाओं और मान्यताओं की एक परम्परा का निर्माण करने के लिए प्रेरित किया। ये परम्पराएं कथा के रूप में सामने आईं। इन कल्पनाओं को और अधिक मजबूत और भरोसेमंद बनाने के लिए उन पूर्वजों ने कथाओं के पाठ को पृथ्वी पर पहले से मौजूद संरचनाओं, वस्तुओं और जगहों से जोड़ दिया। उन्होंने इन कथाओं में अपना ज्ञान और अपने अनुभव नत्थी किये और इन्हें आने वाली पीढिय़ों को गीतों, कविताओं, कहावतों और कहानियों की शक्ल में सौंप दिया। यही कथाएं सरलतम रूप में हमारी मिथक परम्परा की नींव बनी।
आगे चलकर समय-समय पर पुरातनकालीन लेखकों और चिंतकों ने अनुभव और अन्वेषण से प्राप्त ज्ञान को इसमें जोड़ा और यह कथाएं जटिल से जटिलतम होती गईं। साधारण कथा से मिथकों ने कथा कथासरित्सागर जैसे कथा संग्रह और महाभारत, रामायण जैसे महाकाव्यों का रूप लिया। समय के साथ-साथ विचार भी और अधिक परिष्कृत और बहुआयामी हुए और कल्पनाओं ने भी आकाश की नई उचाइयाँ देखीं। विज्ञान के प्रचार के पहले तक मानव सभ्यता की व्याख्या के लिए मिथकों को जनसाधारण में लगभग सटीक माना जाता रहा था। यह मत कि हमें एक अनदेखे ईश्वर ने बनाया है अधिकतर मनुष्यों में स्वीकृत था। हालाँकि संशयवादी दार्शनिकों ने संसार की धर्मवादी व्याख्याओं को अपने तार्किक ज्ञान के आधार पर चुनौती भी दी है। और इस वजह से कई बार ऐसे दार्शनिक जनता और सत्ता के कोप का शिकार भी हुए हैं। धीरे-धीरे धर्म और विज्ञान के बीच दूरी बढ़ी और वैज्ञानिकों ने बेकार समझकर मिथकों की उपेक्षा शुरू कर दी। वहीं समाजशास्त्रियों और दार्शनिकों के लिए ये कथाएं समाज की बुनावट समझने के लिए उपयोगी जरिये की तरह थीं। सबसे उपयोगी तो ये उन ताकतों के लिए रहीं जिनका उद्देश्य इन कथाओं को सच साबित करके इनका राजनीतिक उपयोग करना था। समाज के इस तबके ने मिथकों को अंधविश्वास और अज्ञानता कायम रखने का जरिया बना लिया। मिथकों में गुंथे समाज के मानस और उनकी निर्मित्ति के सूत्र को समझने की कोशिश दोनों में से किसी तरफ के लोगों ने नहीं की। हालाँकि दार्शनिकों और समाजशास्त्रियों के एक हिस्से ने यह कोशिश हमेशा की और वे बहुत सफल भी रहे। मिथकों के तार्किक अध्ययन को अकादमिक विषयों की सूची से बाहर करने का फायदा भी उन्हीं लोगों को अधिक हुआ जो इनका उपयोग अंधविश्वास फैलाने और धार्मिक मकडज़ाल में जनता को जकड़ कर जनता के सांस्कृतिक अज्ञान का राजनीतिक उपयोग अपने हित में करना चाहते थे। मिथक इतिहास नहीं होते, लेकिन मानवशास्त्र, भाषाशास्त्र या फिर पुरातत्व विज्ञान की तरह ही मिथक इतिहास को डिकोड करने के लिए एक टूल की तरह इस्तेमाल ज़रूर किये जा सकते हैं।
हमारे देश में भी जब मिथकों की बात होती है तो अकादमिक और सामाजिक तबके में दो तरह की प्रवृत्ति दिखाई देती है। पहली धारा के पैरोकार मिथकों को कपोल-कल्पना या अधिक से अधिक पूर्वजों द्वारा रचित उच्चस्तरीय साहित्य कहकर इनकी प्रासंगिकता और विश्लेषण के जटिल काम से निज़ात पा लेते हैं, वहीं दूसरी धारा के लोग मिथकों को पूजनीय बनाकर समाज को पुरातन एवं सामंतवादी नियमों की भाड़ में झोंकने को आतुर दिखते हैं। यह दोनों ही प्रवृत्तियाँ अतिवादी हैं और इनका विरोध किया जाना चाहिए। इस समय कई राजनीतिक समूह इसी कलुषित मंशा से मिथक स्रोत-साहित्य को श्रद्धा की वस्तु बनाकर उसका उपयोग जनता को भ्रमित करने के उद्देश्य से कर रहे हैं। गलतियाँ प्रगतिशीलों की ओर से भी कुछ कम नहीं हो रही हैं। प्रगतिशील तबका मिथकों को विश्लेषित करके उसका सही रूप जनता के सामने रखने के काम में बुरी तरह विफल साबित हुआ है। प्रगतिशील आन्दोलनों के सूत्र जब तक तार्किकता से जुड़े रहते हैं वे हमें सही दिशा देते हैं लेकिन जिस क्षण यह विश्लेषण की क्षमता खोकर सिर्फ पहले से उपस्थित सांस्कृतिक चिन्ह के बेवकूफाना विरोध का रूप ले लेते हैं, हास्यास्पद हो जाते हैं। यह वैसा ही है जैसे आप कुएं से बचने की कोशिश में खाई में छलांग लगा दें। ऐसे विचार और ऐसे विचारकों दोनों से जनता और बुद्धिजीवियों को सचेत रहने की आवश्यकता है।
मैं यहां एक उदाहरण देना चाहूँगी, इससे आपको मिथकों के विश्लेषण की महती आवश्यकता का आभास होगा।
पिछले साल दुर्गा पूजा के साथ-साथ कुछ जगहों पर महिषासुर शहादत दिवस भी मनाया गया। जिन संगठनों ने यह कार्य किया उनके सदस्यों को आपत्ति थी कि दुर्गा को ब्राह्मणवादी पौराणिक कथाओं में शक्ति का प्रतीक मानकर पूजा जाता है, जो गलत है। इस समूह द्वारा दुर्गा के मिथकीय चरित्र को, छल पूर्वक महिषासुर का वध करने वाली ''वेश्या'' बताया जा रहा है। जिसके पीछे तर्क यह था कि इसी कारण वेश्या के घर की मिट्टी का इस्तेमाल दुर्गा की प्रतिमा बनाने में होता है। यह कोई आपत्तिजनक बात नहीं है कि लोग अपनी धार्मिक मान्यताओं का उत्सव मनाएं। लोकतंत्र में हर समूह को अपनी मान्यता का उत्सव मनाने की आज़ादी हमारा संविधान देता है। जिसे इच्छा हो तथाकथित देवताओं की आराधना करे जिसे इच्छा हो असुरों को पूजे, ऐसा करने को प्रत्येक मनुष्य स्वतंत्र है। इसे लेकर प्रतिक्रियावादियों द्वारा जो कानूनी कार्यवाहियाँ हुई उससे मैं अपनी असहमति जताती हूँ। लेकिन इस घटना ने मुझे एक लेखक या विचारक की तरह निराश ही किया है।
जहाँ प्रगतिशीलता के अर्थों को, इसकी परिभाषाओं को अनिवार्य रूप से वैज्ञानिक नज़रिये से संबद्ध होना चाहिए, यह एक नए प्रकार की छद्म प्रगतिशीलता है जो प्रतिक्रिया में एक प्रकार के अंधविश्वास को खारिज करते हुए दूसरे अंधविश्वास को मान्यता दे रही हैं, और यह दुर्भाग्यपूर्ण है। यह मैं तथाकथित ''उत्सव'' के लिए नहीं कह रही, बल्कि उस उत्सव से पहले दी गई मिथकीय व्याख्याओं के लिए कह रही हूँ, जो हमारे बुद्धिजीवियों के एक तबके की अज्ञानता का ही परिचय देता है।
हम इसकी सही व्याख्या से गुजरते हुए इसे समझने की कोशिश करते हैं।
मैंने अपने कई लेखों और पिछली किताब में प्राचीन भारत में मातृसत्ता के स्पष्ट चिन्हों का उल्लेख करते हुए कुछ स्थापनाएँ दी हैं। जिनमें से एक का ज़िक्र करना मैं उचित समझती हूँ। मॉर्गन, ऐंगल्स और बाद में कौशाम्बी के हवाले से हम जानते ही हैं कि कमोबेश हर समाज में मातृसत्ता और स्वतंत्र यौन व्यवहार को विवाह संस्था में लाकर व्यवस्थापूर्वक खंडित किया गया है, और परिवार संस्था और निजी सम्पति को अक्षुण्ण बनाये रखने की व्यवस्था की गई है। मैंने अन्यत्र कहीं लिखा है कि यह बात सिर्फ यहीं खत्म नहीं होती। विवाह व्यवस्था में आने से इंकार करने वाले समुदायों की जो हालत हुई, हम उस पर बात करते हैं। इस प्रक्रिया के कई सारे समुदाय विक्टिम हुए। स्वच्छंद यौन सम्बन्धों का अभ्यास करने वाले समुदायों को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी, उनकी देवियों को जो की एक तरह से उनके समुदाय या कबीले की मुख्य पुजारिन, स्वामिनी एवं सबसे प्रभावशाली स्त्री का प्रतीकात्मक रूप थी, लगभग सभ्य समाज की स्त्रियों द्वारा की जाने वाली पूजा से वंचित कर दिया गया उनकी बुरी तरह उपेक्षा की गई।
उदाहरण के लिए आप महाविद्या समूह, योगिनी समूह और पंचकन्या समूह का स्मरण कर सकते हैं, इन सब की पूजा और इनके लिए मनाये जाने वाले सार्वजनिक उत्सव कम से कम उत्तर भारत में प्रचलन से बाहर हैं। कहीं-कहीं उनको व्याधियों और महामारियों की देवियों के रूप में भी स्थापित किया गया है जैसे शीतला माता को भारत में चेचक के लिए एवं महाविद्या भैरवी को नेपाल के कुछ हिस्सों में काला ज्वर लाने के लिए जिम्मेदार माना जाता है। अलग बात है कि बाद में इन देवियों को यही बीमारियाँ ठीक करने वाली ताकत मान लिया गया, लेकिन इनकी पूजा कभी जनसाधारण में प्रचलित नहीं हुई। यही वह प्रतीकात्मकता है जिस पर ध्यान देना दुर्गा के मिथक को डिकोड करने के लिए जरूरी है।
मैंने पहले लिखा है (1) कि स्वतंत्र यौन क्रियाओं का अभ्यास करने वाले समुदायों को दो तरह से तोड़ा गया। पहली विधि में मातृदेवियों-अप्सराओं को विवाह संस्था में लेकर पुरुष देवताओं से बद्ध कर दिया गया, इस तरह समाज में विवाह का प्रचलन बढ़ा। दूसरी तरफ मातृअधिकार मानने वाले जिन समुदायों ने बहुत तीखा विरोध किया उनके तिरस्कार के लिए दूसरे रास्ते का सहारा लिया गया, इनके समुदाय की देवियों को जनसामान्य के मध्य रहस्यात्मकता, भय और उपेक्षा के जाल में फंसा कर तथाकथित धार्मिक लोकतंत्र से बहिष्कृत कर दिया गया एवं इनके कबीलों को छोटे-छोटे परिवारों में तोड़ कर जीविका के सभी सम्मानजनक साधनों से वंचित करके ऐसे कामों में लगाया जो सभ्य नहीं कहे जा सकते थे। चट्टोपाध्याय अपने ग्रन्थ 'लोकायत' में शूद्रों और आदिवासियों को ऐसे बसाये जाने को लेकर कई उदाहरण देते हैं। इन पेशों में हाड़तोड़ श्रम, सफाई आदि से लेकर वेश्यावृत्ति जैसे अमानवीय कार्य तक थे। नागरीय समाज में वेश्यावृत्ति की शुरुआत भी इस बहिष्करण के कई परिणामों में से एक परिणाम था।
जिन भी मातृअधिकार मानने वाले समुदायों ने इस नई विवाह व्यवस्था का विरोध किया और अपने पुराने रक्त-सम्बन्ध आधारित आदिम साम्यवादी व्यवस्था के मूल्यों पर कायम रहने की घोषणा की वे समुदाय पारिवारिक परम्परा के रूप में इस हेय समझे जाने वाले पेशे को भरण-पोषण हेतु अपनाने के लिए विवश किये गए। आज उनमें से कई समुदायों में विवाह प्रचलित हैं परन्तु विवाहित महिलायें भी वेश्वावृत्ति में लिप्त हैं।
इसी प्रकार के एक अन्य उदाहरण में कौशाम्बी ने उर्वशी को मातृअधिकार मानने वाले संप्रदाय से जोड़कर देखा है, जो कि एक अप्सरा थी और अप्सराएं विवाह संस्था में नहीं लाई जाती हैं। दुर्गा की पूजा अधिकतर बंग प्रदेश और झारखंड के पश्चिम बंगाल से जुड़े क्षेत्रों में जोर-शोर से होती है। यह हम सब जानते हैं कि बंगाल में स्त्रियों को अन्य राज्यों की अपेक्षा अधिक स्वतंत्रता प्राप्त है, इसका एक कारण यह भी है कि मातृअधिकार मान्य करने वाले इस प्रदेश में बाद की पितृ सत्तात्मक व्यवस्था अपना प्रभाव उस तरह से नहीं डाल सकी जैसा कि भारत के अन्य क्षेत्रों में हुआ जहाँ देवियों को उनके ही तथाकथित पुत्रों से रिप्लेस कर दिया गया, उदाहरण स्वरुप आप दक्षिण में कार्तिकेय और महाराष्ट्र में गणेश का उदाहरण ले सकते हैं। आज भी भारत के कई हिस्सों में गौरी-गणेश की पूजा एक साथ होती है लेकिन इस पूजा के नियमों में अधिकतर वे अनुष्ठान किये जाते हैं जिसका गणेश से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं होता। वे कृषि सम्बन्धी अनुष्ठान होते हैं (2)
नई व्यवस्था के समर्थकों ने लोक में दुर्गा के खत्म न किये जा सकने वाले प्रभाव को चुनौती देने के बजाय इसे एक उत्सव की तरह स्वीकृति देना बेहतर समझा और सिर्फ प्रतीकात्मक रूप से प्रतिमा बनाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली मिट्टी को वेश्याओं के आँगन से मंगवाते रहे। इस प्रकार दुर्गा के सूत्र बंग प्रदेश की उन महिलाओं से जुड़ते हैं जिन्हें हम वेश्या कहते हैं। हम देख सकते हैं कि इसका यह अर्थ लगाया जाना की दुर्गा का मिथकीय चरित्र वेश्या का है, पूरी कथा को सर के बल उल्टा खड़ा करना है। जो प्रतिक्रिया और अज्ञान के भयानक घालमेल से अधिक कुछ भी नहीं है। यह उदाहरण स्वत: ही मिथकों की बुद्धिपरक व्याख्या का महत्व हमारे समक्ष भली तरह स्थापित कर देता है। अगर तमाम मिथकों को इस तरह की तार्किक दृष्टि से नहीं देखा गया तो एक तरफ जहाँ हम अंधविश्वास को बढऩे से नहीं रोक पाएंगे वहीं अलग-अलग गुटों द्वारा की गई अतार्किक व्याख्या का शिकार होकर सच तक पहुंचने का मार्ग हमेशा के लिए अवरुद्ध हो जायेगा।
भारत सांस्कृतिक विविधताओं का देश है। जहां देश के एक हिस्से में मातृसत्तात्मक परिवार उपस्थित हैं जिनमें स्त्रियों को सम्पत्ति के स्वामित्व एवं वितरण का अधिकार प्राप्त है, वहीं दूसरी ओर नितांत पुरुषवादी व्यवस्था को पोषित करने वाले सांस्कृतिक-समूह भी उपस्थित हैं जिनमें बालिका के जन्म के तुरंत बाद उसकी अनुष्ठानिक हत्या का प्रावधान है। इसी क्रम में जहाँ तिब्बत में बहुपतित्व की प्रथा मान्य है, वहीं बहुपत्नी प्रथा कई जतीय समूहों में पूर्ण सामाजिक मान्यता के साथ उपस्थित हैं। आधुनिक विचारकों को जब सामाजिक अध्ययन के लिए समाज में व्याप्त विसंगतियों की जड़ें तलाशने की आवश्यकता महसूस होती है तब वे हमारे समाज में मान्य धर्म ग्रंथों की सहायता लेते हैं। भारत में अब तक संस्कृति के अध्ययन की जो धारा चली वह संस्कृत भाषा में लिखे गए साहित्य को ही आधार मानकर चली है। संस्कृत मुख्यत: उच्च मध्यवर्ग की भाषा थी। कई संस्कृत नाटकों में नौकरों, स्त्रियों आदि को पाली/प्राकृत बोलते दिखाया गया है। संस्कृत में लिखित साहित्य को आधार मानकर संस्कृति की कई व्याख्याएं विद्वानों द्वारा की गई हैं, परन्तु हम स्पष्ट देखते हैं कि इस आधार पर की गई व्याख्याओं में उच्च वर्ग द्वारा निर्मित एवं मान्यता प्राप्त सामाजिक व्यवहार के दर्शन होते हैं और जनता का पक्ष अछूता रह जाता है।
दूसरी तरफ समय-समय पर श्रीमान दामोदर धर्मानंद कोशाम्बी, देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय, आर.एस. शर्मा, दक्षिणारंजन शास्त्री, ए.के. रामानुजन जैसे विद्वानों-दर्शनशास्त्रियों आदि ने संस्कृत साहित्य के पुन:पाठ एवं लोक साहित्य की मदद से मातृसत्ता और भौतिकवादी दर्शनों के विस्तृत फलक की ओर पाठकों का ध्यान दिलाया है, लेकिन जिस तरह विदेशों में जनसाहित्य को प्रामाणिक मानकर एवं उसे केंद्र में रखकर संस्कृति की व्याख्या की गई है वैसे वृहत प्रयासों का भारत में अभाव है, और यह भारतीय मिथकों के अध्ययन की राह में एक बड़ी बाधा है।
विलियम जॉन थॉमस को folklore (लोक साहित्य) शब्द के अविष्कार का श्रेय जाता है। उन्होंने ''दी एथेनियम'' पत्रिका में लिखे गए एक पत्र में इस शब्द की परिकल्पना की थी। एक वह समय था, उसके बाद यूरोप में कई विद्वानों ने समय-समय पर लोक साहित्य पर काम किया और वहां आज भी धार्मिक मतों, संस्कृतियों और मिथकों के अध्ययन हेतु इस विशद सामग्री की सहायता ली जाती है, वहीं दूसरी ओर भारत में ऐसी गंभीर अध्ययन पद्धति और शोधकार्य का अभाव दिखता है जो समाज के एक व्यापक धड़े को मुख्यधारा के केंद्र में चल रहे सांस्कृतिक आंदोलनों से अलग कर देता है। लोक साहित्य का चरित्र शासक द्वारा रचित अथवा संशोधित साहित्य से अलग होता है। इसे समझने के लिए हम एक और उदाहरण देखते हैं। संस्कृत भाषा-साहित्य में देवी दुर्गा द्वारा महिषासुर के वध की कथा हम सब जानते हैं, परन्तु इस प्रचलित कथा से अलग उड़ीसा राज्य की एक जनश्रुति के अनुसार महिषासुर की पराजय के लिए देवी दुर्गा के समक्ष एक शर्त है, शर्त यह है कि देवी को अपना यौनांग महिषासुर को दिखाना होगा केवल तब ही वह उस असुर को पराजित करने में सक्षम हो सकती है। इस कथा का स्रोत सिर्फ लोक साहित्य है (3)
इस कथा का आशय देवी को अपमानित करना या अश्लीलता प्रदर्शन नहीं है बल्कि नारी में उपस्थित प्रजजन शक्ति के आँखों से देखे जा सकने वाले शारीरिक स्रोत का सम्मान है। यहाँ मैं दक्षिण भारत में प्रचलित एक और मान्यता का जिक्र करना चाहूंगी जिसमें इस तरह का उदाहण देखने को मिलता है। दक्षिण के समुद्रतटीय क्षेत्रों में यह मान्यता है कि समुद्री तूफान का अंदेशा होने पर अगर स्त्रियां जननांग तूफान की तरफ प्रदर्शित करेंगी तो तूफान अपना रास्ता बदल लेगा। ये कथाएं प्रतीकात्मक हैं। मिथकों में छिपे ऐसे सूत्र हमें प्राचीन समाज में प्रचलित व्यवस्था और मान्यताओं के अध्ययन हेतु एक विस्तृत फलक उपलब्ध कराते हैं। प्रश्न यह उपस्थित होता है कि ऐसा क्यों घटित हुआ कि संस्कृत स्रोत-साहित्य और जनता में प्रचलित लोक साहित्य का चरित्र एक दूसरे के सापेक्ष विपरीत ध्रुवों की तरह विकसित हुआ होगा? इसके पीछे क्या सांस्कृतिक-ऐतिहासिक कारण रहे होंगे? और सबसे बड़ा प्रश्न यह उपस्थित होता है कि क्या लोक साहित्य (जिसमें न सिर्फ जनश्रुतियां बल्कि नृत्य शैलियाँ, कहावतें, मौसम और जीवनयापन सम्बन्धी मान्यताएँ आदि भी शामिल हैं) को वैदिक ऋचाओं और पुराणों के समकक्ष मानकर उनमें प्रक्षिप्त सूत्रों से संस्कृति और मानव समाज की व्याख्या में मदद लिया जाना सही है? इस प्रश्न का उत्तर भी इतना ही सरल है।
जैसे सत्ता आज भी मिथक के सिर्फ उसी हिस्से का उपयोग कर रही है जहाँ उसे अपना हित सधता दिख रहा है, प्राचीन समय में राजा भी उन्ही कथाओं का उपयोग करता था जो उसे अपनी स्थिति मजबूत करने और हर तरह के विद्रोह को रोकने में मददगार लगते थे।
हमारी ही संस्कृति में प्रचलित ज्ञान की शाखाओं में से कई में वेद-वाक्य एवं तर्कबुद्धि से प्रेरित अनुभवजन्य ज्ञान को समकक्ष माना गया है। हम यह भी जानते हैं कि वेद ऋचाओं और श्रुति का स्रोत साहित्य भी लिपि की खोज के बाद ही लिखा जा सका है उससे पहले यह ज्ञान भी सिर्फ श्रुति रूप में प्रचलित था तो इसी आधार पर अगर हम लोक साहित्य को मान्यता दे रहे हैं तो इसमें कुछ भी अतार्किक नहीं है। यहाँ यह भी देखना होगा कि लोक साहित्य को बुद्धिगम्य एवं तार्किक आधार देने के लिए पर्याप्त पाषाण-शिल्प, नृजातिक एवं पुरातात्विक प्रमाण हमारे पास उपलब्ध हैं। विदेशों में लोक साहित्य को संरक्षित करने के गंभीर प्रयास हुए हैं, लोक साहित्य पर विश्वकोश लिखे गए हैं, आलोचना, पुन:पाठ एवं तार्किक विखंडन के द्वारा उनमें छिपे सांस्कृतिक सूत्रों की व्याख्या की गई है। इन तार्किक व्याख्याओं से समाज के सामूहिक मानस के विकास को अग्रगामी ऊर्जा मिली है, परन्तु भारत में गंभीर पद्धति से किये गए ऐसे अध्ययनों का नितांत अभाव है। इस कमी ने जहाँ युवावर्ग को भारत की बुद्धिपरक दर्शन प्रणालियों और सामाजिक समता की समृद्ध संस्कृति से विमुख किया है वहीं समाज में स्त्रियों एवं दलितों की स्थिति को निम्न बनाये रखने में भी अपनी अपरोक्ष भूमिका निभाई है। भारत में मिथक साहित्य की जो व्याख्या प्रतिगामी समूह द्वारा की जाती है उसमें जड़ता को बढ़ावा देने के प्रयास ही अधिक होते हैं। निस्संदेह यह दक्षिणपंथी राजनीतिक विचारधारा का ही प्रभाव है जो आज हमारे राजनेता धर्म एवं अन्धविश्वास को अपने राजनीतिक हित के लिए किसी भी मनमानी व्याख्या के साथ उपयोग करने को तत्पर है।
हालत यह है कि जिन चीज़ों पर हमें गर्व होना चाहिए था हम उनको अपनी संस्कृति के अपमान से जोड़कर देख रहे हैं और जिन पर शर्म महसूस होनी चाहिए थी उस पर गर्व कर रहे हैं। यह एक ऐसी स्थिति है जिसे बदलने के प्रयास न किये गए तो यह न सिर्फ भारत की बहुरंगी संस्कृति को क्षति पहुचायेगा बल्कि यह देश को सांस्कृतिक और धार्मिक मुद्दों पर किये जाने वाले निरर्थक युद्ध में भी झोंक देगा। हमारे विचारकों के सामने एक दोधारी तलवार है। जिसपर न चलने का कोई विकल्प हमारे पास नहीं है। हमें यह जानते एवं समझते हुए अपना कार्य करना होगा कि आज मिथकों के सही इंटरप्रेटेशन और अध्ययन की जितनी जरुरत है वह शायद इस देश के इतिहास में पहले कभी न रही होगी। यही वह एकमात्र विकल्प है जो देश की जनता एवं हमारे देश की सांस्कृतिक समृद्धि को अक्षुण्ण बनाये रखने के हित में है।
सन्दर्भ
1. ''प्राचीन भारत में मातृसत्ता और यौनिकता'', लवली गोस्वामी
2. लोकायत, देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय
3. तांत्रिक विज़न ऑफ दी डिवाईन फेमिनिन, डेविड किंस्ले
[साभार: पहल ]
{लेखिका की अनुमति से पुनः प्रकाशित}
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