Mukesh Ji |
"ब्रह्माण्ड-एक खेल का मैदान"
ये अनंत ब्रह्माण्ड दरअसल एक खुला खेल का मैदान है
और वह खिलौने से वंचित खिझाया हुआ एक नन्हा बच्चा।
उसकी नज़रें हिमालय के जमे हुए ग्लेशियर हैं
जिनसे निरंतर रिसती है वेदना
इस तरह एक तेज़ बहाव नदी बहा ले जाती है सब कुछ
और सत्तर फीसदी की सतह पर तैरते हैं
अपेक्षाओं के उजड़े कसबे, गावँ व शहर...
उसके कानों में सुनाई पड़ती है
कई कल्पों के विलापों की कोलाहल
जबकि उसका मुख एक सुरंग द्वार है
जिसके ज़रिये शब्दों का एक जत्था कतार में
रेंगता हुआ उसके शिथिल हृदय से उपजता है
और सांसों के साथ ही फ़ैल जाता है पूरे भूगोल पर.
इस तरह ओज़ोन की परतें और भी मजबूती से स्थापित हैं
वायुमंडल पर...!
उसका धड़ आकाशगंगा सरीखी एक सर्पिल गैलेक्सी है
उसके प्रयास उँगलियों की थकान से चटकी उल्काएं
व विफलताएँ अंतरिक्ष पर मंडराते उपग्रह।
उसके घुटने जवाब दे गए वे ब्लैक होल हैं जिनकी गर्त में
बुरे वक़्त की सभी सदायें दफ़्न हैं...
जिस प्रकार चिड़िया गिरा देती है अपना एक पंख
उसकी पलकों से उम्मीदें टूट-टूट गिर रही हैं
उसके अधरों पर का कम्पन चुंबकीय आकर्षण की नकार है
व उसके माथे पर उभर आई हैं झुंझलाहट की कई असमायिक लकीरें
जिस प्रकार नन्हे हाथों से फिसलती है गेंद
उसकी पूरी देह अधीर है
उसके हाथों से बार-बार पृथ्वी फिसल रही है...!!
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मुकेश चंद्र पांडेय
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एक कवि हमेशा से मानवीय वेदनाओं से आहत रहा है और उन्हें व्यक्त करने हेतु
शब्दों के विभिन्न संयोजनों को संवेदनाओं के साथ एक मजबूत अस्त्र बनाकर बार-बार
प्रहार करता है. मन की उद्विग्नता उसके आकार और प्रकार की सीमा एवं संसाधनों का
विस्तार करती है और पूरे ब्रह्मांड की वेदना उसके बनाए हुए शब्दचित्र में
प्रदर्शित होने लगती है. कवि कभी पूर्णतया निराश नहीं होता, आशावादिता ही कवि की
प्रतिष्ठा है और इसे बड़ी ही सूक्ष्म किन्तु सरल तरीके से कहता है-
“उसकी नज़रें हिमालय के जमे हुए ग्लेशियर हैं,
जिससे निरंतर रिसती है वेदना”
सहज, सरल और एकांत कवि की दृष्टि संसार के समग्र मानवीयकरण उद्देश्यों को देख
रही है. कवि मौन नहीं है, निरंतर प्रयासरत है. धैर्य की सीमा को अनंत में स्थापित
कर प्रतिपल जूझ रहा है. वह नितांत आहत होते हुए भी निरंतर गतिमान है. प्रज्ज्वलित
हैं उसके अन्तःस्थल की अग्नि जिसमे वह स्वयं की संविदा बनाने हेतु आतुर है-
“उसके कानों में ----
इस तरह ओजोन की परतें ....वायुमंडल पर”
समदर्शिता कविता का मूल स्वाभाव है, जिसे कवि ने प्रतिपल संबोधित किया है तथा
स्वनिर्देशित होते हुए प्रयासों के थकान को उल्काओं में परिवर्तित कर देता है.
कहीं-कहीं कवि ऊब जाता है, घुटन महसूस करता है परन्तु उसपर भी निराशा उसे लेशमात्र
भी छूने नहीं पाती. कवि स्वयं की व्यवस्था है और कविता ही उसकी व्यवस्थापक है. कवि
स्वयंभू होते हुए भी कविता की स्वायत्तता के साथ अपने अधिकारों की परिधि में
प्रचुरता का पोषक बना रहता है. इस समूचे ब्रह्माण्ड की नाटकीयता को ध्वस्त कर देता
है. उद्विग्न है परन्तु शांत है. आतुर है, व्याकुलता स्वाभाविक है, अधीर होते हुए
भी प्रयासरत है, यही उसकी व्यवस्था है और नियति भी, तभी तो-
“उसकी माथे पर उभर आयी
है झुंझलाहट की असामयिक लकीरें”
इसप्रकार कवि, समय, सत्ता, प्रेम, उन्माद इन सभी कोलाहलों के निकट और संलिप्त
होते हुए भी सबसे दूर है और ब्रह्माण्ड का कवि बनकर देशीय प्रदेशीय सीमाओं से उठकर
समूचे पृथ्वी को बचने की कोशिश करता है. कविता में कवि ने नए प्रतिमानों का बखूबी
प्रयोग करते हुए बहुत ही अच्छे तरीके से अपने कहन को गढ़ा है.
(विनय मिश्र 'विनम्र')
(विनय मिश्र 'विनम्र')
Vinay Mishra Ji |
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (15-01-2017) को "कुछ तो करें हम भी" (चर्चा अंक-2580) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
मकर संक्रान्ति की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'