नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Friday, December 16, 2016

#6# साप्ताहिक चयन: अधूरे/ *अशोक कुमार'

कभी शब्दों की लड़ियों से बनती भाषा संवेदनाओं को उजागर करती है तो कभी कुछ ऐसा भी कह रही होती है जो अनकहा सा होता है। जिसे कहना भी नहीं होता, वह भी इंगित कर रही होती हैं शब्दावलियां ! शब्दों के शरीफ जाने कितने होते हैं पर बहुधा अर्थ में परछाइयाँ शामिल होती है, बेईमानियों की। किताबें सच की रपट भी लिए होती हैं और झूठ के सिद्धांत की रूपरेखा भी बुनती हैं। पूरे में भी जैसे कहीं कुछ अधूरा है। अधूरे कई मिल पुरे होने का स्वांग रचते हैं, पर वे भी अधूरे ही रह जाते हैं। अधूरेपन के इन पेंचोखम को लेकर अद्भुत कविता रची है अशोक कुमार जी ने। अशोक कुमार जी अनुभवी कवि हैं और सेन्ट्रल कोलफील्ड्स लिमिटेड में वरीय प्रबंधक( कार्मिक ) के पद पर कार्यरत हैं। इस विशिष्ट विन्यास वाली कविता पर अपनी उत्कृष्ट टिप्पणी का योग दिया है अपर्णा अनेकवर्णाजी ने । अपर्णा जी सक्रिय संवेदनशील शब्दशिल्पी हैं, अंग्रेजी व हिंदी साहित्य पर समान अनुराग। आइये कविता और टिप्पणी का आस्वाद लें: (डॉ. श्रीश )


अशोक कुमार 
अधूरे
___

मैंने ईमानदारों में ईमानदार खोजा
धार्मिकों में धार्मिक 

ईमानदार भी थोड़ा बेईमान था
धार्मिक भी थोड़ा विधर्मी

मैंने आस्तिकों में आस्तिक ढूंढा
नास्तिकों में नास्तिक
आस्तिक थोड़े नास्तिक निकले
नास्तिक थोड़े आस्तिक

मैंने सच्चों में सच्चा खोजा
झूठों में झूठा
सच्चे थोड़े झूठे थे
झूठे थोड़े सच्चे

मैंने पुरुषों में पुरुष तलाशा
स्त्रियों में स्त्रियाँ
पुरुष किंचित स्त्रैण निकले
स्त्रियाँ थोड़ी मर्दानी

मैंने दुनिया खोजी

दुनिया में पूरी दुनिया कहाँ थी.

*अशोक कुमार 


[कविता को देखें तो इन सभी शब्दों से हमारा परिचय पुरातन है। जबसे ये गढ़े गए होंगे उससे पहले से महसूस होते रहे होंगे। पर अपने अपने अर्थों को क्या कभी सम्पूर्णता दे सके होंगे ये संभव ही नहीं।

यहाँ हम संभवतः जीवन की मजबूरियाँ, अस्तित्व का प्रश्न, 'सर्वाइवल ऑफ़ द फिटेस्ट' की बात करें। जो कि हम सही भी सिद्ध कर देंगे। पर फिर भी हम इन शब्दों को उनकी पूर्णता तक नहीं पहुँचा सकते। यही मानव होने की जीजिविषा है। यही मानव होने का संघर्ष है।

यहाँ समाज भी एक प्रमुख कारक है। क्योंकि अकेला व्यक्ति जैसे चाहे रहे, कोई उसका सतत् मूल्यांकन कर लेबल नहीं लगाएगा। वह अपने एकांत में संपूर्ण है, इन शब्दों से परे शायद। पर मनुष्य एक सामाजिक प्राणी ही रहा है और जीवित भी इसी आधार पर है। तो ये सारे शब्द जो कि लेबल हैं वह उसे पर लागू होंगे।

अपने अधूरेपन में ही जीवन चल रहा है। एक आदर्श की ओर बढ़ रहा है जानते हुए कि वह केवल आदर्श स्थिती है। कभी संभव नहीं हो सकेगी।
पूरी दुनिया की खोज अपने-आप में बहुत व्यवहारिक नहीं और अमूर्त भी है। ये व्यक्ति व्यक्ति पर निर्भर करता है कि उसकी खोज है क्या।

पर अपने लेखन के मुख्य बिंदु को कवि ने पुन: यहाँ भी दोहराया ही है। वो यथार्थ में जीते हुए अपने आस पास की विद्रूपताओं को देख आगे किसी आदर्श की ओर अग्रसर हैं। और जैसा कि अंतिम पंक्ति में स्पष्ट है वो इस खोज का अंत, यथार्थ में वापस लौटना ही समझते हैं। हाँ निराशा के पुट को हम अनदेखा नहीं कर सकते।

शायद यही एक कवि का संसार है। यथार्थ और आदर्श के बीच का संघर्ष और उसके प्रति उसकी जागरुकता।]

अपर्णा अनेकवर्णा  
अपर्णा अनेकवर्णा 

0 comments:

Post a Comment

आपकी विशिष्ट टिप्पणी.....