(डॉ. जयकृष्ण मिश्र 'अमन') |
आज एक घुमावदार से समय में सच में एक मौजूं सा सवाल तैरता है ज़ेहन में, जो अक्सर पूंछा भी नहीं जा पाता-और वो ये कि-"कि क्या तुम्हारे पास मेरा परिप्रेक्ष्य है...!!!" यह एक परिप्रेक्ष्यों की लीपापोती का धुंधला काल है. लोग बाग़ अभी समाज सम्हालना सीख ही रहे थे कि इन्टरनेट की दुनिया ने खटपट पैदा कर दी, अब हर मायने के मायने बदलने से लगे और हम अपनी उपस्थिति की हनक तोलने की कशमकश जुट गए हों, जैसे...! अपने समय में हस्तक्षेप करते हुए कवियों में अजय कृष्ण एक प्रभावशाली कविकर्मी हैं. इनकी इस कविता पर नवोत्पल की साप्ताहिक टिप्पणी का योग कर रहे हैं, डॉ. जय कृष्ण मिश्र 'अमन', हिंदी साहित्य के समर्पित अध्येता एवं नीर क्षीर विवेकी रचनाकार भी हैं- डॉ. श्रीश
(अजय कृष्ण) |
मध्य रात को
चुपचाप अँधकार में सरसराते हुए
इंटरनेट के एक मैसेज का
एक बरगद रास्ता रोककर खड़ा हो जाता है
और पूछता है
कि क्या तुम्हारे पास
मेरा परिप्रेक्ष्य है !
साइबेरिया से उड़ता हुआ हंसों का जोड़ा
रेगिस्तान की दहलीज़ पार करने से पहले
कई-कई रात मुझसे संवाद करता है
और पेट के अण्डों को महसूसता हुआ
सूरज के ताप को अन्दाज़ता है
पहाड़ों के जंगल से उतरकर
किंग-कोबरा का एक जोड़ा
मेरे कोटरों में घोंसला बनाता है
बच्चे जन कर, उन्हें बड़ा करता है
और फिर कई दिनों के बाद
बढि़याए सोन को पारकर
एक गाँव में लुप्त हो जाता है
ओ पैमेला एंडरसन की नग्न
नब्बे मेगाबाइट तुम तो रोज़ मेरे सवालों को अनसुना कर
वित्त-सचिव के लैपटॉप पर
डाउनलोड होने को आतुर रहती हो
तुम्हेो नहीं मालूम
बूढ़ी गंडक का बढ़ा हुआ पानी
मेरी जड़ों तक आते-आते
थककर शान्त पड़ जाता है
और ध्वंस का पाठ भूल कर
मेढकों के बच्चों को सेता है
और उसी में एक
गरीब गरेडि़या का बेटा
बंसी डालकर
माँ और बाबा के साथ
मछली-भात का सपना
खर्राटे मार-मारकर देखता है.चुपचाप अँधकार में सरसराते हुए
इंटरनेट के एक मैसेज का
एक बरगद रास्ता रोककर खड़ा हो जाता है
और पूछता है
कि क्या तुम्हारे पास
मेरा परिप्रेक्ष्य है !
साइबेरिया से उड़ता हुआ हंसों का जोड़ा
रेगिस्तान की दहलीज़ पार करने से पहले
कई-कई रात मुझसे संवाद करता है
और पेट के अण्डों को महसूसता हुआ
सूरज के ताप को अन्दाज़ता है
पहाड़ों के जंगल से उतरकर
किंग-कोबरा का एक जोड़ा
मेरे कोटरों में घोंसला बनाता है
बच्चे जन कर, उन्हें बड़ा करता है
और फिर कई दिनों के बाद
बढि़याए सोन को पारकर
एक गाँव में लुप्त हो जाता है
ओ पैमेला एंडरसन की नग्न
नब्बे मेगाबाइट तुम तो रोज़ मेरे सवालों को अनसुना कर
वित्त-सचिव के लैपटॉप पर
डाउनलोड होने को आतुर रहती हो
तुम्हेो नहीं मालूम
बूढ़ी गंडक का बढ़ा हुआ पानी
मेरी जड़ों तक आते-आते
थककर शान्त पड़ जाता है
और ध्वंस का पाठ भूल कर
मेढकों के बच्चों को सेता है
और उसी में एक
गरीब गरेडि़या का बेटा
बंसी डालकर
माँ और बाबा के साथ
मछली-भात का सपना
['इन्टरनेट और बरगद' --- अजय कृष्ण जी की इस कविता को पढ़ते हुए, शब्द दर शब्द जब विचारों की परतें उधेड़ रहा हूँ, ठीक उसी समय मन के भीतर, स्मृतियों की ढेरों गैलरियों से गुजर रहा हूँ। स्मृतियाँ..... यादें नहीं। और जैसे- जैसे इन स्मृतियों के झरोखे से कहीं गहरे प्रवेश कर रहा हूँ, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से लेकर निश्छल भइया तक हजारों परछाइयाँ बारी- बारी कुछ कह रहीं हैं। ऐसे में इतने विचार उग रहे हैं , यदि उन्हें शब्द दूँ तो इस वर्चुअल स्पेस में उन विचारों के लिए ज़मीन कम पड़ जाये। दुःखद संयोग है कि, अनुभूतियों की इस यात्रा में उस व्यक्ति के रचना संसार से भी गुजर रहा हूँ, जो पिछले दिन भौतिक रूप में गुजर गए। इस कविता पर मेरी टिप्पणी इसी अनुभूति के रचनाकार विवेकी राय जी को मेरी श्रद्धांजलि भी है।
स्मृतियाँ........ यानि, वह सामाजिक-विचार-चेतना, जो हजारों वर्षों की मानसिक परम्परा में हमारी पीढ़ियों से हमें प्राप्त हुई हैं। कविता का प्रारम्भिक शब्द 'बरगद' उसी चेतना का प्रतीक है। रचनाकार ने बरगद को यूँ ही नहीं चुना। बरगद प्रतीक है उस मानवीय जिजीविषा का, जो हर कटाव के बाद भी हमें हमारी सांस्कृतिक विरासत से जोड़ता है। उसने पीढ़ियाँ देखी है। उसने भगही पहन गलबहियां डाल अपने बैल को पुचकारते हुए किसान को भी देखा है तो, तथाकथित आधुनिक कल्याणकारी शासन के विशाल मशीनी संगठन में फसे मामूली इंसानी पुर्ज़े को भी। उसने विज्ञान के बढ़ते प्रभाव और परिणाम स्वरूप उत्पादन के साधनों के केन्द्रीभूत होने, पत्थरों और शीशे के चमकदार महानगरों के उगने तथा यांत्रिक सभ्यता के प्रभाव में होती हुई वृद्धि और धीरे-धीरे पदार्थिकृत होते मनुष्य को भी देखा है। उसने देखा है वैश्विक महायुद्धों और उनके बाद मटियामेट होती हुई सांस्कृतिक विरासतों को। उनके प्रभावों को और मूल्यों की उड़ती हुई धज्जियों को। उसने महसूसी है पीड़ा, स्वयं को अकेला, असहाय, अजनबी, संत्रस्त, जड़ों से कटा और टूटा हुआ अनुभव करने वाले मनुष्य की। उसने देखा मनुष्य को इस वास्तविक दुनिया पर अविश्वास कर, इससे अलगाव महसूस करते हुए, अपनी एक अलग कृत्रिम, आभासी, वर्चुअल दुनिया रचते हुए। उस दुनिया में खोये हुए, जहाँ सब कुछ है पर कुछ नहीं। उस इंसान को जिसे सुदूर हिमनदों में पिघलते हुए ग्लेशियरों और उसके टेम्परेचर की जानकारी तो है पर, अपने गाँव के किनारे की नदी कब उथली होकर सूख गई, इसका कुछ भी ज्ञान नहीं। जिसने विशालकाय पेड़ों को बोनसाई बनाकर अपने कमरे के छोटे से गमले में क़ैद कर दिया।
बरगद ने यह सब कुछ देखा-जाना है, तभी तो वह रात के सन्नाटे और स्याह अन्धेरे में चुपचाप खिसक कर आते इन्टरनेट के मैसेज का रास्ता रोककर पूछने का साहस करता है-"एक बरगद रास्ता रोककर खड़ा हो जाता हैऔर पूछता हैकि, क्या तुम्हारे पास मेरा परिप्रेक्ष्य है" इस बरगद की शाखाओं में ढेरों गाँठे हैं, पर हर गाँठ से निकलने वाली जड़ों ने इस आभासी दुनिया के बावजूद उन सभी स्मृतियों को सहेज रखा है। स्मृतियों के समयबोध के जाल से छूटकर हर बार जाने कितने क्षण गिर पड़ते हैं। 'हंसों के जोड़े से संवाद, मेढकों के बच्चों की चिन्ता, गड़ेरिये की गिरी हुई वंसी' आदि उन्हीं क्षणों को पकड़ने और बाँधने की चेष्टा है। कवि की पुरजोर कोशिश है कि, बरगद की छाँव में बैठ, उसकी जड़ों से रस्सी बना, इन स्मृतियों की लड़ी बना पाये। क्योंकि उन्हीं के भरोसे तो-"गड़ेरिये का बेटामछली-भात का सपनाखर्राटे मारकर देखता है।"-डॉ. जयकृष्ण मिश्र 'अमन']
स्मृतियाँ........ यानि, वह सामाजिक-विचार-चेतना, जो हजारों वर्षों की मानसिक परम्परा में हमारी पीढ़ियों से हमें प्राप्त हुई हैं। कविता का प्रारम्भिक शब्द 'बरगद' उसी चेतना का प्रतीक है। रचनाकार ने बरगद को यूँ ही नहीं चुना। बरगद प्रतीक है उस मानवीय जिजीविषा का, जो हर कटाव के बाद भी हमें हमारी सांस्कृतिक विरासत से जोड़ता है। उसने पीढ़ियाँ देखी है। उसने भगही पहन गलबहियां डाल अपने बैल को पुचकारते हुए किसान को भी देखा है तो, तथाकथित आधुनिक कल्याणकारी शासन के विशाल मशीनी संगठन में फसे मामूली इंसानी पुर्ज़े को भी। उसने विज्ञान के बढ़ते प्रभाव और परिणाम स्वरूप उत्पादन के साधनों के केन्द्रीभूत होने, पत्थरों और शीशे के चमकदार महानगरों के उगने तथा यांत्रिक सभ्यता के प्रभाव में होती हुई वृद्धि और धीरे-धीरे पदार्थिकृत होते मनुष्य को भी देखा है। उसने देखा है वैश्विक महायुद्धों और उनके बाद मटियामेट होती हुई सांस्कृतिक विरासतों को। उनके प्रभावों को और मूल्यों की उड़ती हुई धज्जियों को। उसने महसूसी है पीड़ा, स्वयं को अकेला, असहाय, अजनबी, संत्रस्त, जड़ों से कटा और टूटा हुआ अनुभव करने वाले मनुष्य की। उसने देखा मनुष्य को इस वास्तविक दुनिया पर अविश्वास कर, इससे अलगाव महसूस करते हुए, अपनी एक अलग कृत्रिम, आभासी, वर्चुअल दुनिया रचते हुए। उस दुनिया में खोये हुए, जहाँ सब कुछ है पर कुछ नहीं। उस इंसान को जिसे सुदूर हिमनदों में पिघलते हुए ग्लेशियरों और उसके टेम्परेचर की जानकारी तो है पर, अपने गाँव के किनारे की नदी कब उथली होकर सूख गई, इसका कुछ भी ज्ञान नहीं। जिसने विशालकाय पेड़ों को बोनसाई बनाकर अपने कमरे के छोटे से गमले में क़ैद कर दिया।
बरगद ने यह सब कुछ देखा-जाना है, तभी तो वह रात के सन्नाटे और स्याह अन्धेरे में चुपचाप खिसक कर आते इन्टरनेट के मैसेज का रास्ता रोककर पूछने का साहस करता है-"एक बरगद रास्ता रोककर खड़ा हो जाता हैऔर पूछता हैकि, क्या तुम्हारे पास मेरा परिप्रेक्ष्य है" इस बरगद की शाखाओं में ढेरों गाँठे हैं, पर हर गाँठ से निकलने वाली जड़ों ने इस आभासी दुनिया के बावजूद उन सभी स्मृतियों को सहेज रखा है। स्मृतियों के समयबोध के जाल से छूटकर हर बार जाने कितने क्षण गिर पड़ते हैं। 'हंसों के जोड़े से संवाद, मेढकों के बच्चों की चिन्ता, गड़ेरिये की गिरी हुई वंसी' आदि उन्हीं क्षणों को पकड़ने और बाँधने की चेष्टा है। कवि की पुरजोर कोशिश है कि, बरगद की छाँव में बैठ, उसकी जड़ों से रस्सी बना, इन स्मृतियों की लड़ी बना पाये। क्योंकि उन्हीं के भरोसे तो-"गड़ेरिये का बेटामछली-भात का सपनाखर्राटे मारकर देखता है।"-डॉ. जयकृष्ण मिश्र 'अमन']
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