गाँधी जी जैसा रीयल परसन अपने जन्मदिन पर आपको निष्क्रिय कैसे रहने दे सकता है..? जितना पढ़्ता जाता हूँ गाँधी जी को उतना ही प्रभावित होता जाता हूँ. गाँधी और मै. मेरे लिये गाँधी जी सम्भवत: सबसे पहले सामने आये दो माध्यमों से, पहला -रूपये की नोट से, दूसरा एक लोकप्रिय भजन- रघुपति राघव राजाराम...फिर पता चला इन्हें बापू भी कहते हैं; मोहन भी, इन्होने आज़ादी दिलवाई और सत्य, अहिंसा का पाठ पढ़ाया. बापू की लाठी और चश्मा एक बिम्ब बनाते रहे. इसमे चरखा बाद में जुड़ गया.पहले जाना कि यह भी एक महापुरूष है, बाकि कई महापुरुषों की तरह. और तो ये उनमे कमजोर ही दिखते हैं. सदा सच बोलते हैं और हाँ पढ़ाई में कोई तीस मारखां नहीं थे. ये बात बहुत राहत पहुँचाती थी. पहला महापुरुष जो संकोची था, अध्ययन में सामान्य था. मतलब ये कि --बचपन में सोचता था --ओह तो, महापुरुष बना जा सकता है, कोई राम या कृष्णजी की तरह, पूत के पांव पालने में ही नहीं दिखाने हैं. फिर गाँधी जी का 'हरिश्चंद्र नाटक' वाला प्रकरण और फिर उनकी आत्मकथा का पढ़ना.. मोहनदास का झूठ बोलना, पिताजी से पत्र लिखकर क्षमा याचना करना. पिता-पुत्र की आँखों से झर-झर मोतियों का झरना. ...प्रसंग अनगिन जाने फिर तो..पर एक खास बात होती गयी. गाँधी जी को जानो तो वो भीतर उतरते जाते हैं, उतने ही प्राप्य, tangible हो जाते हैं.
किशोरावस्था में गाँधी जी का मतलब ये हो गया था-'-कोई एक गाल पे झापड़ दे तो दूसरा गाल भी आगे कर दो...’
गांधीजी कायर थे और जाने क्या-क्या सुना, उन लोगों के मुँह से जिन्होंने कभी नवजीवन प्रकाशन से छपने वाली २० रूपये वाली बापू की ''सत्य के प्रयोग'' तक नहीं पढ़ी.
आज गाँधी एक सॉफ्टवेयर जैसे लगते हैं, जिसमे जैसे जिन्दगी की हर फाईल खुल जाती हो, सारे वाद-विमर्शों की वीडियो चल जाती हो..हम गाँधी को आजमाते जाते हैं और उनकी प्रासंगिकता पर बहस करते जाते हैं. महामना गाँधी जी की सबसे बड़ी खासियत यही थी कि उन्होने सबके सामने एक आदर्श रखा, एक ऐसा आदर्श जो सबके सामने ही प्रयोग करते हुए, गलतियाँ सुधारते हुए, व्रत-उपवास, अनशन, यात्रा आदि-आदि करते हुए रचा गया, एक ऐसा आदर्श जो सामान्य मानव मन के लिए अनुकरणीय था.
गाँधी ने सबको, सबके भीतर के गाँधी से मिलवाने की मुहिम चलायी और सफल रहे. गाँधी पर विचार करते हुए किसी प्रकार का एकेडेमिक तनाव नहीं होता, क्योंकि गाँधी केवल किताबों में नहीं हैं, भाषणों में ही नहीं हैं या फिर विभिन्न आलेखों में ही नहीं हैं. हम गाँधी को अपने किचेन में भी पाते हैं और अपने बाथरूम में भी गाँधी हमें हाइजीन का पाठ पढाते मिल जाते हैं. दिन की शुरुआत में गाँधी प्रार्थना की शक्ति समझा रहे होते हैं, तो रात में 'आत्म-निरीक्षण' की आदत डलवा रहे होते हैं. हो सकता है, गाँधी आपसे नमक का कानून तोड़ने के लिए कह रहे हों और पेट दुखने पर मिटटी का लेप भी स्वयं ही लगा रहे हों. गाँधी, इरविन से भी बात कर लेते हैं, और आपके दादा, दादी, पापा, मम्मी, भाई, बहन से भी बात कर लेते हैं. गाँधी, वकील को भी समझा रहे होते हैं, अध्यापक को भी पढ़ा रहे होते हैं और डॉक्टर को भी हिदायतें दे रहे होते हैं. गाँधी हर जगह मुस्कुरा रहे होते हैं और अपनी स्वीकार्यता सरलता से बना लेते हैं.
गाँधी वहां भी धैर्यवान और शांत हैं, जहाँ वे प्रयोग कर रहे हैं या गलतियाँ कर रहे हैं. सब आपके सामने है. गाँधी एक साथ उत्कट हैं और विनम्र हैं. गाँधी लैटिन भाषा का एक्जाम देते हैं, आंग्लभाषा में बैरिस्टरी करते हैं, पर ठीक सौ साल पहले 'हिंद स्वराज' लिखते हैं तो गुजराती में लिखते हैं. और हाँ, 'हिंद स्वराज' में कोई भाषण या कठिन निबंध नहीं लिखते वरन सामान्य जनों के प्रश्नों का सरल व व्यापक सम्पादकीय उत्तर दे रहे होते हैं.
गाँधी एक साथ संकोची व परम निडर हैं. वो मान लेते हैं कि वे डरपोक हैं, फिरोजशाह मेहता की तरह जिरह नहीं कर सकते, पर अफ्रीका में अपनी पगड़ी नहीं उतारते, मोहनदास . मोहन से महात्मा बनने की यात्रा एक क्रमिक सुधारयात्रा है, साधारण के असाधारण बन जाने की महागाथा है, जिसका साक्षी हिन्दुस्तान का आख़िरी व्यक्ति है.
मुझे सबसे ज्यादा पसंद है, गाँधी जी का प्रयोगधर्मी होना. जीवन-व्यापर में ऐसी कोई चीज नहीं जिस पर गाँधी प्रयोग करते ना दिख जाते हों. वो आपको मालिश करना सिखा सकते है, बाल काटना बता सकते हैं. अंतःकरण शुद्धि की विधियां बता सकते हैं और तिलहन की फायदेमंद खेती कैसे करें, यह भी बता सकते हैं. गाँधी बच्चों से ठिठोली कर सकते हैं. नोआखाली में उन्माद से जूझ सकते हैं. गाँधी आपको सरल ह्रदय वाला बना सकते हैं, जिसमे जरा भी घमंड व कर्त्ताभाव ना हो, जब वो कहते है कि सबसे गरीब व कमजोर व्यक्ति का स्मरण करो और सोचो कि तुम्हारे इस कदम से उसे क्या फायदा होने वाला है. आपको अपनी लघुता और उपयोगिता दोनों का पता तुंरत ही लगता है.
महामना गाँधी अपना सारा मोह छोड़ सकते हैं. चाहे वो खाने का हो, चाहे वो सेक्स का हो, चाहे वो कपड़ों का हो ...आदि-आदि. गाँधी, शिक्षा के लिए अपना घर बार छोड़ सकते हैं, अपना समाज छोड़ सकते हैं. गाँधी पहला गिरमिटिया बन सकते हैं. गाँधी बाइबिल पढ़ सकते हैं और गीता भी, कुरान भी और जेंद अवेस्ता भी. उनके लिए कुछ भी अनछुआ नहीं है. वो सबके हैं और सब उनके. गाँधी के लिए गैर तो अंग्रेज भी नहीं. उन्हें वेस्ट कल्चर से नहीं, अंधी आधुनिकता से ऐतराज था. उन्हें मशीन से नहीं पर मैकेनाइजेशन से चिढ़ थी.
......ग्लेशियर पिघलने लगे हैं, धरती गरम हो गयी है, मानवी उन्माद नए चरम पर हैं, तो अब कब सुनोगे बापू को.....बोलो...?
गाँधी थकते नहीं, चलते जाते हैं. जीवन-पर्यंत चलते जाते हैं. भारत का पहला mass-mobilisation का श्रेय उन्हें प्राप्त है. पहले democratic leader हैं वो क्योकि उनकी अपील common man के लिए थी. उनका उपवास, गरीब का भी उपवास था और टाटा-बिड़ला का भी उपवास था. हम गाँधी को प्यार करने लग जाते हैं क्योकि वो अपनी गलतियाँ बताते हुए, कमियां जग-जाहिर करते हुए आगे, एकदम आगे बढ़ते जाते हैं. गाँधी उन्ही क्षणों में सचेत हैं, कि उनको स्वयं का अन्धानुकरण नहीं करवाना है. गांधीवाद जैसी कोई चीज नहीं पनपने देनी है. उन्हें चमत्कार नहीं बनना है..वे आचरण में श्रम की प्रतिष्ठा कर जाते हैं. भारतेंदु हरिश्चंद्र ने जिन भारतीयों को धीमी रेलगाड़ी का डिब्बा कहा है, उनके सामने युगपुरुष गाँधी एक नियमित,अनुशाषित, सयंमित व सक्रिय दिनचर्या का आदर्श रखते हैं.
(चित्र साभार: गूगल इमेज ) |
गाँधी हर पत्र का उत्तर लिखना नहीं भूलते, कागजों के रद्दी से आलपिनों का चुनना नहीं भूलते. अपने साप्ताहिक, मासिक पत्रों में किसी भी तरह के मुद्दे को छेड़ना नहीं भूलते. गाँधी नहीं भूलते कुछ भी पर हम भूल जाते हैं सब कुछ. आखिर हमने गाँधी को सिम्बल बना लिया है. टाँक लिया है अपने राष्ट्रिय जीवन पर. गांधीवाद के बाकायदा संसथान बना लिए हैं, जहाँ से खादी तैयार होती है और संसद में शोरगुल मचाती है कि नोट की गड्डी अन्दर कैसे आयी, कौन लाया, किसके लिए..लाया....?...? उन संस्थानों में चरखा चलता रहता है, खादी की नयी खेप आती रहती है, शोरगुल मचाने के लिए...
गाँधी अनवरत जिन्दा रहेंगे, उनकी प्रार्थना अमर रहेगी, किसी भ्रमित की गोली उन्हें नहीं रोक सकेगी कभी भी, क्योंकि उन्होने अपनी जगह आसमान या धरती पर नहीं बनाई थी; दीवारों या नोटों पर नहीं बनाई थी, उन्होने बनाई थी अपनी जगह समाज के अंतिम आदमी के दिल में..तो वो सदा-सर्वदा मुस्कुराते रहेंगे, केमिकल लोचा करते रहेंगे..उनकी प्रासंगिकता की बार-बार होने वाली बहस भी बेमानी है, क्योंकि वो जीवन-व्यापार से कभी अनुपस्थित ही नहीं होते...हम भ्रमित, श्रांत उन्हें खोज नहीं पाते और बहस करने लगते हैं प्रासंगिकता की..
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