नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Saturday, April 15, 2017

#४# दिल की डायरी: मन्नत अरोड़ा


मन्नत अरोड़ा 

सबके अनुमान गलत और दवाई बेअसर रही। बेटी हुई। मुझे बेटे या बेटी दोनों से कोई ऐतराज़ नहीं था। मेरी सास और पति को विशवास ही नहीं हो रहा था।सास ने तो डॉक्टर से पूछा भी कि कहीं बच्चा बदल तो नहीं गया किसी से। 

अब जो था वो था।

हॉस्पिटल से घर आए कुछ दिन ही हुए कि सास कहने लगी कि बेटी को मैं पाल लूंगी तू फिर से तैयारी कर ले।मुझे पोता चाहिए। खुद के दो बड़ी बेटियां थी बाद में दो बेटे।बस जो विरासत में इनकी सास दवा करती आयी थी बेटे के लिए वोही सोच आगे चल रही थी।दोनों बेटियों के भी पहली बेटियां बाद में बेटे थे।पर सोच सबकी एक सी। आदमियों का भेद-भाव तो समझ में आता है पर औरतें ही खुद की नहीं थी।

मेंटली सिक जैसे लोगों से कुछ भी कहना-सुनना बेकार सा था सो ध्यान देना छोड़ दिया था।


ऐसा नहीं था कि हम उसके बाद कभी मिले ही नहीं।
यूँ ही मेरी शादीशुदा जिंदगी के चलते फिर से एक पार्टी में सामना हुआ उसी अतीत के एक कोने से। मुझे किसी ने पार्टी में बताया कि उसकी शादी तय हो गयी है। और उसकी मँगेतर भी वो ही है।यूँ ही सारे मोहल्ले और सब जानकारों के बारे में गॉसिप ही तो सोसाइटी का जरूरी काम है।यही सब शादियों और कोई भी get-together का जरूरी हिस्सा भी।या फिर किसने किसको क्या दिया-लिया। सुन कर कुछ सुकूँ मिला कि चलो अच्छा ही है उसने किसी को चुन लिया है। जैसे ही किसी ने दिखाया तो सन्न रह गयी मैं।कि इसने चुना है यां फैमिली स्टेटस के चलते इसकी भी कुर्बानी ही हो रही है।


लड़की मोटी थी और उस से बड़ी भी लग रही थी। मैंने ज्यादा अपनी सोच को हवा न देते हुए आखिर निर्णय किया कि जरूरी नहीं जैसा कि वो खुद नज़र आता है कोई आधुनिक लड़की ही पसंद करता।शायद यही अच्छी लगी हो। मैं यूँ ही सब से मिलके एक तरफ बैठ गयी थी, कि अचानक ही मेरा ध्यान उस ओर अपने आप खिंच गया यां कुछ हुआ (याद नहीं)। ज्यादा लोग नहीं थे वहां और वो मुझे वैसे ही देख रहा था जैसे कुछ साल पहले मैं देख रही थी। समझ नहीं आ रहा था कि उसकी आँखें कुछ पूछ रही थी यां जता रही थी।मैंने एक टक देखा तो देखती रह गयी कि आखिर वो कहना क्या चाहता है?


फिर परेशां होकर उठ के दूसरी ओर चली गयी जहाँ सब लोग थे।


वापसी पे उसकी सवालिया आँखें मेरे साथ थी।

Source:Google Image


"यूँ ही तो मिले थे हम"

मुझे तो शादी के अलावा कोई दूसरा विकल्प दिया ही नहीं गया था लड़की होने के कारण।जहाँ तक उसको जानती थी किसी की मर्ज़ी मानने वालों में से नहीं था।मैंने गौर भी किया कि सिर्फ फ़ोटो अपनी मँगेतर के साथ खिंचवा कर इधर-उधर चला जाता था। मुझे अपने दिल की ही ख़बर थी।वो कभी सोचता भी होगा मेरे बारे में;मालूम न था।कभी मिलना या बात भी तो कोई हुई नहीं थी हमारे बीच। उसने मुझे खुद को देखते हुए नोटिस भी किया था या नहीं,इसका भी कोई अनुमान नहीं था। जो भी था,मैं जिंदगी में आगे बढ़ चुकी थी।तो यही चाहती थी कि वो भी आगे देखे।और अपनी पसंद से किसी से शादी कर ले। अब उसको उसकी प्रोब्लेम्स के साथ आगे बढ़ना था,मुझे मेरी। कभी उसको अपने बारे में कुछ बता भी पाऊँगी यां नहीं। जानती नहीं थी।

सबकी अपनी-अपनी मानसिकता होती है।पढ़ा-लिखा सही और अनपढ़ हमेशा गलत हो जरूरी नहीं। मेरी जेठानी भी अपने आप में एक महान आत्मा थी। हर 2 या 4 महीने बाद बेटे की उम्मीद से डॉक्टर पास चली जाती थी। डॉक्टर ने बार-2 miscarriage की वज़ह से 2-3 साल रुकने को कहा था। उसको बेटा पैदा करने का जुनून सवार था। जैसे कोई ट्रॉफी है,जीत के ही रहेगी। टी.बी.हो गयी और डॉक्टर ने सख्ती से कह दिया था कि जब तक इलाज चल रहा है कोई बच्चा नहीं। पर उसने फिर त्यारी कर ली थी। सभी डॉक्टर ने केस लेने से मना कर दिया।एक डॉक्टर तो चिल्लाई भी कि अनपढ़ हो क्या।समझ नहीं आता कुछ भी। फिर कोई एक डॉक्टर किसी तरह मानी और उसने संभाला सब।


बेटा हुआ।
चलो कैसे भी था पर बेटा आने से सब खुश हो गए।


पर यह खुशी भी ज्यादा देर टिकी नहीं।क्योंकि दोनों सास-बहु में पटती ही नहीं थी।दोनों एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगी रहती थी।घर में पॉलिटिक्स जैसा माहौल था।मेरी जेठानी को मालूम था कि सास अपनी ननदों से घबराती है। तो बस head-quarter तक उसकी पहुँच चलती थी। उसका काम ही सारी रिपोर्ट सास की उनको देना होती थी,जिनका काम ही घर बैठे हर घर की ख़बर रखना होता।या कहाँ शांति चल रही है थोड़ा आग ही लगा आएं।वक़्त भी बीत जायेगा।और दिल भी बहल जायेगा। औरतों के इतने धांसू करैक्टर थे कि आदमी अगर इनके सामने बोल भी जाए तो आखिर क्यों बोल जाए।


उधर सास भी कुछ कम नहीं थी।उसका दिन-रात का ताना होता था कि लायी क्या है अपने मायके से।ज़ाहिर सी बात थी बिना सास की मर्ज़ी के love marriage थी।मेरे माँ-बाप ने सब कुछ दिया था।सब रिश्तेदार भी बहुत पूछते थे और मुझे भी नौकरी में ही दिया गया था शायद।यानी शादी क्या हुई सारे मायके वाले गुलाम हो लिए। मुझे अपनी शादी फंसाऊ शादी से ज्यादा नहीं लगी कभी।आजकल ज्यादातर इसी किस्म की शादियां होती हैं।कोई न कोई अप्रैल फूल बन या बना रहा होता है।बस अपने मतलब का पूरा होना होता है शादी की आड़ में।




(क्रमशः)


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